बाल मीमांसा
निर्मल-पावन, कोमल-निश्छल बाल हृदय की लघु मीमांसा।
न शब्दों की, न ध्वनियों की, जाने कोई भाषा.. आतुर हर क्षण..
है तो केवल जिज्ञासा।।
बड़ी दुविधा है.. जो देखे वो है नहीं.. जो है.. वह दृष्टिगोचर नहीं।
जाने वो केवल.. उड़ती उमंगो की कच्ची सी आशा की भाषा ।
अलग अपनी उसकी हर परिभाषा।।
कहीं जुगनूँ..कहीं गुड़िया, कहीं तितली.. अल्हड़पन चांद सितारे को..कभी ललचाऐं।
कभी देख अँधियारे.. बरबस.. नैना नीर बहाऐं।
माता कहीं-मुझसे बिछड़ न जाए।
नन्हीं अंगुली.. आंचल थामे, अपलक निहारे उनींदे चक्षु.. कभी जगे और
कभी सो जाऐं।
मृग तृष्णा की मानिंद.. कल्पना... कल्प तरू पर चढ़ना चाहे।।
ना माने..यह शुद्ध-चित्त साधु प्रवृत्ति....
भ्रमित मिथ्या अन्य कोई दिलासा।।
निर्मल-पुनीत.. बाल हृदय की लघु मीमांसा।
✍️डॉ. कंचन मखीजा, रोहतक, हरियाणा, 9991186186 |