बिस्कोमान की कुर्सी या लोकतंत्र की नींव पर चोट? — एक साजिश, एक सत्ता संघर्ष!
✍️अनूप नारायण सिंह
बिहार के सबसे बड़े सहकारी समिति बिस्कोमान के अध्यक्ष पद पर डॉक्टर सुनील कुमार सिंह की पत्नी वंदना सिंह की हार की चर्चा पूरे प्रदेश नहीं, पूरे देश में है। बिहार के मुख्यमंत्री और राजद एमएलसी डॉक्टर सुनील कुमार सिंह के बीच की तल्खी किसी से छुपी हुई नहीं है। इसी का परिणाम है कि सत्ता का पावर इस्तेमाल करके अंतिम समय में डॉक्टर सुनील कुमार सिंह गुट के तीन लोगों को बदलने पर बाध्य किया गया।जब देश सीमाओं पर युद्ध जैसी परिस्थितियों से जूझ रहा है, ठीक उसी समय बिहार में एक ऐसी लड़ाई चल रही है जो न केवल सत्ता के चरम रूप को उजागर करती है, बल्कि लोकतंत्र की आत्मा पर भी सवाल खड़े करती है। यह लड़ाई बिस्कोमान पर अलोकतांत्रिक तरीके से कब्जे को लेकर है। असल में यह लड़ाई राजनीतिक अहंकार और व्यक्तिगत बदले की भावना की है।राजद के वरिष्ठ नेता और बिहार विधान परिषद के सदस्य डॉक्टर सुनील कुमार सिंह, सहकारी क्षेत्र में एक मज़बूत और प्रभावशाली चेहरा हैं। लेकिन अब उन पर कई मोर्चों से सियासी प्रहार हो रहा है, और इसका नेतृत्व कोई और नहीं, स्वयं बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार कर रहे हैं—ऐसा आरोप बार-बार उभरकर सामने आ रहा है।डॉ. सुनील कुमार सिंह को पहले बिहार विधान परिषद की सदस्यता से निलंबित करवाया गया, लेकिन माननीय उच्चतम न्यायालय के हस्तक्षेप के बाद उनकी सदस्यता बहाल हुई। यह उनके राजनीतिक जीवन में न्यायिक जीत तो थी, लेकिन सत्ता प्रतिष्ठान के लिए यह एक झटका था।इसके बाद बिस्कोमान का चुनाव आया, जहां सुनील सिंह गुट ने निदेशक मंडल में स्पष्ट जीत दर्ज की, जबकि मुख्यमंत्री के समर्थित प्रत्याशी हार गए। यहीं से शुरू हुई असली लड़ाई।इसके बाद जो कुछ हुआ, वह न केवल बिहार बल्कि पूरे देश के सामने है—निर्देशकों को डराकर, धमकाकर दिल्ली ले जाया गया; अमित शाह और नित्यानंद राय जैसे केंद्रीय मंत्री उनसे मिले; डायरेक्टरों पर करोड़ों के नोटिस; बालू घाट बंद कर दबाव बनाना; और करोड़ों में खरीद-फरोख्त की खबरें। क्या यह सब केवल एक सहकारी संस्था के चुनाव के लिए था? या फिर यह किसी राजनीतिक प्रतिशोध की सुनियोजित कार्ययोजना का हिस्सा था?माननीय झारखंड उच्च न्यायालय ने स्पष्ट निर्देश दिया है कि चूंकि बिस्कोमान में झारखंड की हिस्सेदारी है, इसलिए उसके हितों की भी रक्षा सुनिश्चित की जानी चाहिए। मामला झारखंड उच्च न्यायालय में विचाराधीन है और नियम के अनुसार जब तक कोर्ट का अंतिम फैसला नहीं आता, तब तक अध्यक्ष और उपाध्यक्ष का चुनाव नहीं हो सकता। यह न केवल कानूनी प्रक्रिया की जीत है, बल्कि यह भी दर्शाता है कि न्यायपालिका इस घटनाक्रम को हल्के में नहीं ले रही।लेकिन सत्ता के गलियारों में साजिशों का यह खेल जारी है। यह सब तब हो रहा है जब देश सीमा पर युद्ध जैसे हालात झेल रहा है। ऐसे समय में देश के गृह मंत्री का ध्यान अगर बिस्कोमान जैसे क्षेत्रीय संस्थानों पर केंद्रित हो, तो यह न केवल प्राथमिकताओं पर प्रश्नचिन्ह है, बल्कि लोकतांत्रिक मर्यादाओं की अवहेलना भी है।बिस्कोमान की कुर्सी की लड़ाई अब महज़ एक पद या संस्था की नहीं रही। यह संघर्ष लोकतंत्र, संस्थाओं की स्वायत्तता, और राजनैतिक अहंकार के खिलाफ खड़े होने की मिसाल बन चुका है। जब सत्ता किसी व्यक्ति विशेष को ‘समाप्त’ करने के लिए हर मर्यादा तोड़ने पर उतारू हो जाए, तो यह केवल उस व्यक्ति की लड़ाई नहीं रह जाती—बल्कि यह जनता और संविधान की लड़ाई बन जाती है।
यह आलेख अनूप नारायण सिंह के फेसबुक वॉल से लिया गया है!