फूलदेई - लोक पर्व के बहाने उत्तराखंड की लोक संस्कृति का प्राकृतिक पर्व - प्राकृतिक रंगों के संग!
होली के रंगों में प्राकृतिक रंगों को ना भूलें!
✍️ डॉ. चंद्रकांत तिवारी
फूलदेई पर्व के दिन बच्चों की मित्र-मंडली थाली को सजाकर उसमें फूल, चावल, गुड़, मिठाई रखकर अपनी बिरादरी और आस-पास के घरों में या अपने क्षेत्र के पूरे गांव में, आसपास घरों में जाकर मुख्य दरवाजे की दहलीज़ पर फूलदेई खेलते हैं अर्थात देहली पर अक्षत और फूल फेंकते हैं और घरों की खुशहाली, शुभ मंगलमय की कामना करते हैं । इस पूरी रस्म के दौरान वे लोकगीत गाते हुए आनंद और खुशी से जितना दोगे उतना ही सही कथन वाक्य को दोहराते हैं। बड़ों को प्रणाम कर आशीर्वाद प्राप्त करते हैं। आदर्श चरित्र की निर्माण प्रक्रिया में यह महत्वपूर्ण एवं उल्लेखनीय पर्व है।
बच्चों की मित्र-मंडली को सभी लोग खुशी-खुशी चावल, मिठाई, फल, टॉफी और गुड़ के साथ भेंट में रुपये भी देते हैं। कहना ना होगा कि अब पहले के मुकाबले इस पर्व के प्रति बच्चों और बड़ों में अपनापन थोड़ा कम होता जा रहा है । लोग अपने लोक पर्वों को भूल रहे हैं या उन्हें अब यह पर्व महत्वहीन लग रहा है। जिस गांव में लोग पहले स्वयं अपने किशोरावस्था में खुशी-खुशी इस पर्व को खेलते थे, वहीं आज उन्हें समय के साथ-साथ महत्वहीन लगने लगा है।
बहुसंस्कृति और बढ़ती हुई भूमंडलीकरण की प्रतिस्पर्धा की दौड़ में लोग अपनी जड़ों से पलायन कर रहे हैं । अपने लोक पर्वों से पलायन कर रहे हैं । अपनी लोक संस्कृति से पलायन कर रहे हैं। अपने घर-गांव से पलायन कर रहे हैं। अपनी नैतिकता एवं आचरण की मूल्यपरकता से पलायन कर रहे हैं। स्थिति बहुत ठीक नहीं है ऐसा वह भी मानते हैं जों लोक पर्व को विस्मृत एवं भूल बैठे हैं या याद नहीं करना चाहते। हो सकता है इस कार्य के लिए उनके पास समय शेष ना बचा हो। व्यस्तता ने व्यक्ति की नैतिक मर्यादा, आत्मिक चेतना, स्वच्छंदता, हंसी-खुशी एवं अपनापन, सरलता एवं खुलापन, बोलने की कला व्यवहारिक जीवन कौशल, रिश्ते-नाते सभी में बदलाव कर दिया है। साहब यह भूमंडलीकरण की दौड़ है जहां प्रसन्नचित चेहरे के भीतर भी एक चेहरा छुपा हुआ है। जो न हंसता है, न बोलता है। केवल बिंम मात्र है। शीशे के भीतर प्रतिबिंबित दृश्य।
किसी जमाने में बच्चों को इस दिन का बेसब्री से इंतजार होता था। बच्चे स्कूल में भी एक दूसरे के ऊपर फूलों से खेल लिया करते थे। परंतु आधुनिकता और परंपरा के मध्य का सेतु थोथी नैतिकता की समाजिकता का शिकार बन गया और हमने लोक पर्व को ही नहीं खोया बल्कि अपनी सांस्कृतिक विरासत का भी गहरा नुकसान कर दिया। आजकल के बच्चे मोबाइल में गेम खेलने या फिर अपनी पढ़ाई में इतने व्यस्त रहते हैं कि वे लोकपर्वों के महत्व से वंचित हो चुके हैं और ऐसे पर्वों को पिछड़ेपन के प्रतीक के रूप में देखने लगे हैं।
हालांकि बसंत ऋतु के आगमन पर फूलदेई का त्यौहार मनाया जाता है। फूलदेई के लिए बच्चे एक दिन पहले से ही रंग-बिरंगे फूल तोड़कर ले आते थे । उसे टोकरी या फिर थाली में चावल लेकर सभी के घरों में फूलदेई के लिए जाते थे । इसके बाद उन्हें चावल, गुड़, टॉफी या फल रुपये दिए जाते थे । बच्चे जब फूलदेई को आते थे, तो वह फूलदेई का गीत भी गाते थे,
जैसे -
‘फूलदेई छम्मा देई, दैणी द्वार भर भकार’।
'फूलदेई छम्मा देई, जतुक देय्ला उतुक सई'।
इस पर्व के प्रति बच्चों में काफी उत्साह देखने को मिलता था पर अब शायद....!!
मैं बचपन से ही फूलदेई मनाता रहा हूंँ । आज किसी बच्चे को अगर फूलदेई मनाते देखाता हूंँ तो स्वयं को पुरानी स्मृति से जोड़ पाता हूंँ। स्मृति पद-चिन्ह लौटते ज़रूर हैं। इस दिन के आनंद का इंतजार एक वर्ष से करता रहा हूंँ । परंतु अब शायद लोगों के और अपने रिश्तेदारों के घरों में ना जाकर देवी-देवता के मंदिर में पुष्प अर्पित कर मन ही मन अभी भी कहता हूंँ कि....
'फूलदेई छम्मा देई, दैणी द्वार भर भकार’।
'फूलदेई छम्मा देई, जतुक देय्ला उतुक सई'।
आत्म मंथन भी जरूरी है..
क्या हमें अपने लोक पर्व को बाजार की संस्कृति और लोगों के हृदय से नहीं जोड़ना चाहिए ?
क्या हमें ऐसे लोक पर्वों के दिन सांस्कृतिक उत्सव और मित्र-मंडली के साथ कुछ पल समय व्यतीत नहीं करना चाहिए ?
क्या हमें इस दिन छोटे बच्चों और किशोरावस्था के नवयुवकों को मिठाई और फल या फिर मार्गदर्शन या आपसी सद्भाव नहीं देना चाहिए ?
यह लोक पर्व रचनात्मकता एवं सृजनात्मकता का प्रतीक है।
लोक की संस्कृति और संस्कृति का लोक भविष्य का उज्ज्वल आलोक है।
भक्ति, श्रद्धा, अपनत्व एवं सहजता सभी सहृदयता के प्रतीक चिन्ह हैं।
नैसर्गिक प्रवृति के लिए कागज के पुष्पों की नहीं अपितु प्रकृति के प्रांगण के पुष्पों की आवश्यकता है।
प्रकृति उपहार एवं असंख्य आकर्षणों और रंगों से भरी हुई है। प्राकृतिक रंगों को हृदय में धारण करना चाहिए कि कृत्रिम रंगों को ?
गतिशील समृद्ध विचारशक्ति जगाने की आवश्यकता है कि नहीं विचारें...!
ऐसे कई महत्वपूर्ण बिंदु हैं जिस पर विचार-मंथन की आवश्यकता है। निर्णय परिपक्वता से बनेगा तभी दीर्घ काल तक चलेगा.!
हम अगर अपने लोक पर्वों की रक्षा करेंगे तो लोक पर्व हमारी संस्कृति और धर्म की रक्षा करेंगे। हमारे लोगों की रक्षा करेंगे। इंसान को इंसान बनाए रखेंगे। स्वार्थ की प्रीति कहांँ तक उचित है विचारें ..!!
✍️ डॉ. चंद्रकांत तिवारी, उत्तराखंड - संपर्क: 8851679576
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