वरिष्ठ शिक्षक, साहित्यकार, ख्यातिलब्ध कवि और समाज सेवक विजय शंकर मिश्र "भास्कर" का दिव्यालय व्यक्तित्व एक पहचान में होस्ट किशोर जैन द्वारा हुआ साक्षात्कार।
रिपोर्ट- सुनीता सिंह "सरोवर"
अगर हृदय से कुछ कर गुजरने की चाहत हो तो उम्र मायने नहीं रखती।
बस हिम्मत, हौसला और मंजिल को पाने की आरजू होनी चाहिए।
बेतिया (बिहार): जी हाँ आज के इस कार्यक्रम दिव्यालय व्यक्तित्व एक पहचान के अंतर्गत हम एक ऐसे ही मृदुभाषी व्यक्तित्व से हम रुबरु होगें, जिन्होंने अपने हौसले के दम पर एक मुकाम हासिल किया है।
आपने कुल 37 पुस्तकें लिखी, आपकी हर एक पुस्तक अपने आप में बेमिसाल है। इतना ही नहीं आप एक बेहतरीन इंसान हैं, बिना भेद- भाव के समाज के हल वर्ग को समुचित शिक्षा के लिए पहल करतें भास्कर प्रभा नामक स्कूल की भी स्थापना की है। तो आइए आज हम मिलतें अपने व्यक्ति विशेष से।
1- आपका जन्म एवं प्रारंभिक शिक्षा कहाँ से संपन्न हुई?
उ.प्र.के सुलतानपुर जनपद जो पहले कुशभवनपुर नाम से विख्यात था,उसके पूर्वी छोर पर स्थित कालनेमि वधस्थल बिजेथुआ महाबीरन के पास एक गाँव है समुदा;इसी के 'पंडित का पुरवा' में महाशिवरात्रि को मेरा जन्म हुआ।
पिताजी द्वारा उँगली पकड़कर धूल में क,ख,ग लिखाने के बाद पड़ोस के गाँव मगरसनकला की प्राथमिक पाठशाला से कक्षा पाँच पास किया।फिर लगभग पाँच किमी.दूर अमरेमऊ मिडिल स्कूल से कक्षा आठ पास किया।
2- सुना है,कोलकाता से आपका विशेष लगाव रहा है, हमारे श्रोता जानना चाहते हैं, आपके अनुभव को?
गाँधी स्मारक इंटर और डिग्री कॉलेज समोधपुर (जौनपुर) से बी.एस.सी. करने के उपरांत दो वर्षों के अंतराल के बाद मैंने नौकरी की तलाश में बंगाल का रुख किया।मैंने बिरला कॉलेज ऑफ साइंस एण्ड एजूकेशन कोलकाता से बी.एड.किया और सेंट एलॉएसियस स्कूल हावड़ा में मैथ्स और फिजिक्स के टीचर के रूप में कार्यरत रहा।
बंगाल में मैं 1977 से 1986 तक रहा।आते जाते दुकानों का नाम पढ़ते-पढ़ते और बंगाली छात्रों के संपर्क से बांग्ला भाषा सीख गया। शरच्चन्द्र चट्टोपाध्याय की कहानियों और उपन्यासों को पढ़कर मैं बंगाली समाज की ओर आकर्षित हुआ।अपने ट्यूशन के छात्रों के माध्यम से मारवाड़ी समाज के निकट आया।बेफिक्र बिहारी लोगों के संपर्क ने मुझे सहजता के रंग में रँग दिया और इन सबके समन्वित समुच्चय के रूप में मैं बंगाल के लिए विशेष लगाव रखता हूँ।
3- आप विज्ञान एवं गणित के शिक्षक थे, फिर हिंदी से इतना लगाव कैसे?
पिताजी कर्मकांड में निष्णात श्रीमद्भागवत कथावाचक थे,उनसे पौराणिक ज्ञान प्राप्त हुआ।गुरुजनों ने हिंदी पढ़ाते समय हिंदी कवियों और कथाकारों के स्वरूप का आकर्षक वर्णन किया।बंगाल में शिक्षण काल में नाटक, काव्यपाठ और अन्य समारोहों में मैं हिंदी के कार्यक्रमों का प्रस्तोता रहा, विद्यालय में गाए जाने वाले स्वागत गीत,राष्ट्रीय गीत और विदाई गीत लिखे,विद्यालय पत्रिका के हिंदी अनुभाग का संपादक भी रहा,कवियों के संपर्क में आया और हिंदी के प्रति लगाव बढ़ता गया।
4- सुना है आपने अभी कुछ सालों पहले ही हिंदी और संस्कृत विषय में परास्नातक किया है, अवध विश्वविद्यालय से?
हाँ!सेवाकाल में वर्ष 1987 में व्यक्तिगत परीक्षार्थी के रूप में हिंदी से और सेवानिवृत्ति के बाद 2023 में डॉ.सुशीलकुमार पाण्डेय 'साहित्येंदु' जी के संपर्क में आने के बाद संस्कृत विषय से अवध विश्वविद्यालय से परास्नातक उपाधि 71.5%अंक प्राप्तकर संतोष का अनुभव करता हूँ।
5- क्या लेखनी आपको विरासत में मिली है, या आपने ये विरासत सौंपी है अपने आने वाली पीढ़ी को?
विरासत ही कहिए,सनातन धर्माश्रय वाले परिवार में लेखन-वाचन तो चलता ही रहता है।आनेवाली पीढ़ी तैयार हो रही है।गायत्री परिवार की व्यक्तिगत विरासत नहीं होती है।सामूहिकता ही हमारी पहचान है।साहित्यांबर साहित्यानुरागियों से भरा रहता है।साहित्यकार धरती पर कम साहित्याकाश में अधिक सुख मानते हैं।इस व्यापकता में मुझे पुत्र, पुत्रियाँ, बहनें,भाई मिले हैं।यह परिवार बढ़ता जा रहा है।भारतीय संस्कृति के प्राणस्वरूप राघवेंद्र सरकार की कृपा से उनके दासानुदासों की कृपा भी प्राप्त हो रही है।काम भी राम का,नाम भी राम का,विरासत भी उन्हीं की।
6- भास्कर प्रभा नाम से पत्रिका एवं विद्यालय भी संचालित करतें हैं? आप इस विषय में हमें विस्तार से बताए?
शांतिकुंज में 1994 में परम वंदनीया माता भगवती देवी शर्मा द्वारा आहूत श्रद्धांजलि सभा जिसमें लगभग आठ लाख लोगों ने भागीदारी की थी,मेरे जीवन का टर्निंग प्वाइंट साबित हुआ।गायत्री परिवार के वरिष्ठ परिजन भाई जयप्रकाश सिंह के आग्रह पर मैं इस आयोजन में रिजर्व बस से गया।हमारे काफिले में लगभग साठ क्षेत्रीय लोग गए थे।वहाँ के दिव्य भव्य यज्ञीय वातावरण में जीवनधारा को मोड़ने की अलौकिक शक्ति थी।मैंने उस ऊर्जा का भरपूर पान किया, माताजी से सामूहिक दीक्षा प्राप्त किया और विद्यालय खोलने का सत्संकल्प लिया था।भास्कर नाम की अवधारणा वहीं से मन में आई।तीन पुत्रों और पुत्री के नाम में भास्कर लग गया और गुरुदेव के आध्यात्मिक दिवस पर वसंतपंचमी 1995 में भास्कर विद्यालय की स्थापना श्री जयप्रकाश सिंह जी के द्वारा कराए गए हवन के साथ हो गई।
परमपूज्य गुरुदेव पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य ने मथुरा छोड़कर शांतिकुंज बनाया और उनके पदचिह्नों का अनुसरण करते हुए मैंने भास्कर विद्यालय की स्थापना के पचीसवें वर्ष में प्रज्ञापुराण कथा की पूर्णाहुति देकर विद्यालय का भार परोक्षसत्ता को सौंपकर वानप्रस्थ की ओर पूर्णरूपेण सक्रियता का वरण किया।मैंने सन् 2009 में शांतिकुंज में वानप्रस्थ लिया था।
भास्कर प्रभा सन् 2009 से प्रकाशित हो रही है।इसके संपादन का दायित्व मँझले सुपुत्र चि.अभिषेक भास्कर सँभाल रहे हैं।
7- अभी तक आपने छोटी- बड़ी कुल 55 पुस्तकें लिखी इनमें से सबसे लोकप्रिय पुस्तक कौन- कौन सी हैं?
प्रायः सभी,किसी कृति के रचने में साहित्यकार को प्रसववेदना से कम पीड़ा नहीं झेलनी पड़ती,जब वह सामने आ जाती है तो प्रसविनी माँ के समान सर्जक सारा दुखदर्द भूल जाता है।उसे अपनी सारी रचनाएँ प्रिय होती हैं, जैसे माँ को अपनी सभी संतानें एक समान प्रिय होती हैं।बाबा तुलसीदास ने भी कहा है,
"निज कबित्त केहि लाग न नीका।सरस होइ अथवा अति फीका।।"
यद्यपि 'भए प्रगट कृपाला' और 'विजयपथ' का गुणीजनों द्वारा विशेष समादर हो रहा है तथापि रणधीर सुमित्रानंदन मुझे बहुत प्रिय है।छोटे सुमित्राकुमार को जनकनन्दिनी के द्वितीय वनवास काल में महामुनि वाल्मीकि आश्रम में लवणासुर वध के लिए प्रयाण में दो बार जाने का,लवकुश जन्म के समय सोहर सुनने का तथा वापसी में कुशलक्षेम जानने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था।यह पुसक कादंबरी जबलपुर से सम्मानित हुई है।
8- आपकी अपनी कुछ प्रसिद्ध रचनाएँ आज हम सभी सुनना चाहते हैं?
जी सादर श्रवण करें,
9- आपने 'सोनार बांग्ला' नामक संस्मरण लिखा है, जो मानसपटल पर एक अनोखी छाप छोड़ती है, हम उसके विषय में जरूर जानना चाहते हैं?
बंगाल में कर्त्तव्यनिष्ठा और क्रियाशीलता से समादर मिला,मेरे पूरा छात्र अब भी मुझे समय-समय पर बुलाते हैं।अपने अतिव्यस्त व्यावसायिक कार्य छोड़कर मेरे आतिथ्य में लगे रहते हैं,इसी को सँजोकर 'सोनार बांग्ला' का सृजन हुआ है।भए 'प्रगट कृपाला' में 'दो पुष्प' नामक सर्ग रामजन्मभूमि संघर्ष में बलिदानी रामकुमार और शरद कोठरी और कोठारी परिवार की वीरगाथा के रूप में आया है।मैं इस ग्रंथ की प्रति कोठरी परिवार की एकमात्र थाती 'पूर्णिमा कोठरी' को कोलकाता में प्रदान करने का सौभाग्य भी प्राप्त कर सका हूँ।मेरा कोलकाता के प्रति लगाव और अनुराग रंचमात्र भी कम नहीं हुआ है।
10- आप आने वाली पीढियों के लिए क्या संदेश देना चाहते हैं?
1.साहित्यसृजन जीवन में आनेवाली सांसारिक पीड़ा के लिए दर्दनिवारक बटी है।
2.'कीर्तियस्य स जीवति' और साहित्यसृजन साहित्यकार को अमर बना देता है।
किशोर जैन रेडियो रिप्रेज़ेंटेटिव् यूके द्वारा बड़ी ही कुशलता से इस साक्षात्कार को प्रस्तुत किया गया, जिसे Vayanjana Kavyadhara हमारे यूट्यूब चैनल पर देखा व सुना जा सकता है।