नवरात्र के अलावा भी है "सात" का अध्यात्मिक महत्व!
सारण (बिहार) संवाददाता सत्येन्द्र कुमार शर्मा: नवरात्रि के सातवें दिन माँ कालरात्रि की आराधना किया जाता रहा है। माँ का संपूर्ण शरीर राक्षसों से युद्धों के बाद अत्यंत काला पड़ गया था। कठिन परिश्रम एवं क्रोध में माँ का यह रौद्र रुप कहा जाता है।
"सात" के अध्यात्म पक्ष के संबंध में राजेश्वर कुंवर ने बड़ा ही महत्व बताया है। उन्होंने सप्तमी तिथि के दिन मूल नक्षत्र एवं आंख खुलने के बीच बहुत ही अध्यात्मिक संबंध व संकेत रहता हैं। सात का हिन्दू धर्म शास्त्रों में अपना अलग बहुत ही महत्व है। नवरात्रि में नवदुर्गा के विभिन्न रूपों की आराधना किया जाता है। माँ काली की सात बहनों को ही प्रमुख रूप से माना जाता हैं । हमारे यहां भोजपुरी लोकगीतों के माध्यम से माता के सात बहनों की चर्चा किया गया हैं।
भोजपुरी गीत "खेल तारी सातों रे बहिनिया हिलुआ लगाई के"। काफी प्रसिद्ध है। उधर सात दिनों के सप्ताह होते हैं। और इस सात दिन में ही किसी का जन्म - मृत्यु निर्धारित है। श्रीमद्भागवत कथा का आयोजन भी सात दिनों के लिए ही किया जाता है। इसे सप्ताहिक ज्ञान कथा भी कहा जाता है। राजा परिक्षित को सातवें दिन ही तक्षक ने डसा था। उन्होंने भी सुखदेव जी से सात दिन तक श्रीमद्भागवत कथा सुनी थी और उसके बाद वे परमधाम को चले गए थे। सात ज्ञान का प्रतीक है। सप्तर्षि सात ही बताए गए हैं। सात पुरियों की चर्चा हमारे शास्त्रों ने की है जो भारत में ही हैं। सात ही समुद्रों की विवेचना होती है। इन्द्रधनुष में सात रंग होते हैं। भगवान् भास्कर की रथ में सात घोड़े लगे हुए हैं। सात प्रमुख नदियों का शास्त्रीय अवधारणा है। श्रीरामचरितमानस में सात काण्ड होते हैं और सत्यनारायण कथा के भी सात अध्याय होते हैं।
हमारे शास्त्रों में दांपत्य जीवन की शुरुआत सात फेरे लेने के बाद ही शुरू होती है। हमारे वैवाहिक संबंध सात जन्मों के लिए बताया जाता हैं। अक्सर हम सात जन्मों के लिए ही कोई संकल्प लेते हैं। सात जन्मों के लिए ही लोग चुनौती देते हैं, जैसे"आप सात जन्मों में भी मेरी बराबरी नहीं कर सकते हैं" सात पीढ़ियों के बाद ही संस्कार " डी एन ए " बदलता है, सप्तमृतिका, सप्तधातु , सप्तधान्य, सतलोक, सात रंगों की चर्चा हमारी संस्कृति एवं संस्कारों में रचा वशा हैं। बिना मूल के कोई भी वृक्ष की कल्पना नहीं की जा सकती हैं ठीक उसी प्रकार माननीय चेतना में मूल का महत्व सर्वाधिक है। हमारे संस्कार, हमारी संस्कृति, हमारी प्रगति, हमारी राष्ट्री चेतना, सब-कुछ मूल पर आधारित है। इस सृष्टि की मूल भी माँ ही है।बिना मूल के सब-कुछ निर्मूल है। इस संसार की उत्पत्ति के मूल में आंख ही तो है। जब तक आंखें चार नहीं होतीं तब तक प्रेम का संचार नहीं होता और प्रेम के संचार के अभाव में सृष्टि की रचना पूर्णतः असम्भव है। प्रेम सार है जो आंख के माध्यम से ह्रदय में उतरकर संरचना के लिए प्रेरित करता है और सृष्टि की अभिवृद्धि का काम अनवरत चलता रहता है। इस प्रकार सात, मूल नक्षत्र एवं आंख तीनों का आज के दिन संयोग महत्वपूर्ण है।