बड़के भैया गए ससुराल! (कहानी)
✍🏻स्वेता गुप्ता "स्वेतांबरी"
/// जगत दर्शन साहित्य
एक समय की बात है दद्दा बड़के भैया, मंझले भैया और छुटके भैया गांधी मैदान में झाड़ू लेकर धरना पर बैठे कि देश की लोकतंत्र की रक्षा करेंगे, भ्रष्टाचार का नाश करेंगे और लोक सेवा का कानून लाएंगे। साथ में बड़के भैया ने कसम खा रखी थी कि सरकारी नौकरी चाकरी संभालते हुए ई बड़का काम करेंगे। लेकिन चुनाव तो बिल्कुल भी नहीं लड़ेंगे। जब बात ना बनी तो, तो बड़े पुरजोर से धरना बड़के भैया अपनी रखी रखाई सरकारी चाकरी छोड़ आहिन कि, देश से भ्रष्टाचार का नाश करके ही रहेंगे। जब धरने से बात नाही बनी तो बड़के मंझले और छोटका भैया बोले दादा दे दियो आशीर्वाद अब हम चुनाव भी लड़ ही लेत हैं। जीतते ही 15 दिनों के अंदर भ्रष्टाचार का सुपड़ा साफ और लोक सेवा का कानून जनता के सामने पटक देंगे मतबल की लागू कर देंगे। दद्धा सोचे कोई तो लायक भवा अबकी तो भोली जनता का कुछ भला होइये जागा।
अपनी रखी रखाई सरकारी चाकरी छोड़ी और बड़के भैया निकल पड़े चुनाव लड़ने, लेकिन का कहे भईया ई कुर्सी की जात ही ऐसी है अच्छे अच्छो को नियत बिगाड़ देत है, चुनाव जीतते ही बड़के और मंझले भैया ने हाथ मिला लिन्ही और भूल गए लोक सेवा कानून को। इधर दद्धा नाराज हो गए और छुटके भैया भड़क के एक किनारे सरक गए और जाकर राम जी की शरण हो लीए। इधर दद्धा अपनी छोटी सी लोक सेवा दल के साथ अपने गांव हो लिए और बोले, की अब इस भोली जनता का भला तो भगवान ही करें।
बड़के भैया की झाड़ू अभियान तो पूरे जोर-जोर से चल ही रही थी, तभी उनका मोह और जाग गवा, मजे की बात तो ई है कि थोड़े दिन हुए ही थे की बड़के भैया के झाड़ू सफाई में,उनको कुर्सी नहीं महा कुर्सी पर बैठने का मोह जाग गवा और जाने कौन से महापुरुष के आदेश से त्यागपत्र दे दिन्ही। निकल पड़े लड़ाई यानी के चुनाव लड़ने! भाई हमका तो बड़ा दुख भवा औंधे मुँह गिर पड़े, यानि के हार गए।
फिर का था भोली - भाली जनता पर फिर से प्रदेश चुनाव का एक बोझ डाल दिन्ही, लेकिन भाग्य के साँढ़ थे बड़के भैया, खाँसते हुए मफलर लपेटे हुए चुनाव जीत ही गए। समय आने पर फिर दुबारा जब चुनाव भवा उन्होंने हिम्मत नहीं हरी, काहे की हिम्मत के धनी थे बड़के भैया। यह बात अलगे रही की मँझले भैया के समर्थन, उत्साह व जनता के भरोसे ने उनको दोबारा फिर से जितवा दिया। काहे की बड़के भैया ने कल्याणकारी बड़े काम किए थे और बड़े बुराइयों को अपनी झाड़ू से सुपड़ा साफ कर दिए थे।
अच्छी खासी दुनियादारी जम गई थी सोचा कि पैर थोड़ा और फैलाया जाए तो थोड़ा और बाकी के प्रदेशों में भी झाडू फिराया जाय सो निकल पड़े, लेकिन कहीं बात नहीं बनी और एक पंजाब में बनी भी तो जोड़ तोड़ के साथ। फिर आई गई ई कोरोना मुवा, भैया का कहे खाय - खाय के लाले पड़े थे। घर में सब कैद कर लिए गए थे या कैद हो गए थे। यहां तक की ऑक्सीजन के भी लाले पड़ रहे थे किंतु बड़के भैया को प्रदेश के अर्थव्यवस्था की बड़ी चिंता थी। सो निकल पड़े प्रदेश की अर्थव्यवस्था संभलने!
ई देखके हम तो भोरे - भोरे माथा -पीट लिए की मदिरा की दुकान पर लंबी-लंबी कतार लगी है वह भी भैया के ही प्रदेश में! ई मुआ न्यूज़ चैनल जनवा लोग ना होते, तो हम जान ही नहीं पाते बाबा! ऑक्सीजन की कमी हो जाए किंतु मजाल है की मदिरालय में कुच्छो कमी होई जाय, मदिरापान होते रहना चाहिए, भाई अर्थव्यवस्था का जो सवाल था फिर जो भी हो करोना भी गवा,हम सब घर से बाहर भी निकले और ऑक्सीजन के साथ निकले।
ई आत है अबकी बार हमरी सरकार के टाइम पर, हम का कहे भैया ई ईडी ससुरी सबकी जान लेकर ही छोड़ेगी। मंझिले भैया पहले ही धर लिए गए उ घड़ी ऐसा लगा जैसे दो हंसो का जोड़ा बिछड़ गयो रे और बड़के भैया को 9 बार बुलावा भेजा पर बड़के भैया बोले हम तो पाक साफ है हम कैसे आएंगे, हम तो नाही जावेंगे चाहे जो होई जाय। इत्ता बुलावा आता तो हम जैसे लोग तो दौड़े चले जाते, लेकिन भाग्य है भैया कर्म का खेल है जो लिखा है बाबा है वह तो होईहे रहेगा। खैर बड़के भैया आधी रात धर लिए गए और ससुराल भेज दिए गए। कहते हैं जो भी हो ससुराल से ही देश सेवा करेंगे ऐसे जज्बे वाले बड़के भैया को शाष्टांग प्रणाम और मफलर को सलाम।
बड़के भैया ने बड़े-बड़े कल्याणकारी कारज किए हैं, मोहल्ले में दवाखाना खुलवाया, गरीब बच्चों के लिए सरकारी स्कूल में बढ़िया इंतजाम करवाएँ और उनके पिताजी के लिए भी सोचा (शराबखानों की संख्या बढ़ा दी) कोई इतना सोचता है भला! ईब तो हम तो यही कहेंगे कि ई सब ई कुर्सी का दोष है, ई कुर्सी की जात ही ऐसी है, जो - जो जब - जब इस कुर्सी पर बैठा है उसकी बुद्धि भ्रष्ट होइए गई है।