मजदूर दिवस (मजदूर गाथा)
✍️ संजीव वर्मा "शाकिर" (कैनरा बैंक, बिहार)
/// जगत दर्शन साहित्य
पसीना हमने बहुत बहाया
अब खून हम बनायेंगें।
ऐ सड़क, तू साक्ष्य बनेगी
तुझे रक्त से सीचते जाएंगे।
बीवी, बच्चे और बूढ़े मां बाप
छोड़, जो भी शहर को आता है।
शर्म करो, गर बाकी है कुछ
वह मजदूर नहीं निर्माता है।
रंजिश कैसी ये कैसी साजिश
मेरा तो किसी से बैर नहीं।
खैर, किया बहुत तेरे खैर के खातिर
पर मेरा अब, कोई खैर नहीं।
पुष्प वर्षा भले हुई हो,
हमने तो उपल वर्षा झेली।
खेल-खिलौने दिये जिस दुनिया को,
वही हमारे संग खेली।
राहत पैकेज का मरहम नहीं जी
ये नमक, मिर्च का घोल है।
बौनी बन बैठी हैं सरकारें
यही भौतिक भूगोल है।
अंधा राजा और गूंगी प्रजा
क्या सब सच में अनजान हैं?
थाली पीट कर शोर मचाते
मेरा भारत महान है।
अब चलेंगे रात-दिन हम
देखते हैं रोकेगा कौन।
ये मूक सरकारें क्या बोलेंगी
जब मेरा ही, खुदा है मौन।
स्वच्छ भारत का तिलक किया है,
एड़ी के लाल रंग से।
जैसे नभ की छाती छल्ली हो गई
एक पर कटे विहंग से।
दिखता नहीं क्या तुम्हें वहां से?
आसमान में बैठे हो।
यहां धरा पर कोख फट गई।
खुद को मसीहा कहते हो।
उठो गगन अब नीचे आओ
देखो मेरी पीड़ा को।
गरीबी संग जो खेली जा रही
सत्ताधीश की क्रीड़ा को।
बहुत हुआ यह आंख मिचोली
अब तो कुछ उद्धार करो।
हे ईश्वर! ब्रह्मांड रचयिता,
अब तुम ही बेड़ा पार करो।
या तुम भी इनके जैसे हो
जो खुली आंख से सोते हैं।
भैया, बाबू कर वोट मांगते,
पर कभी ना अपने होते हैं।
दर-दर पर दुत्कार मिला है
दसों, दिशाएं घूम कर।
गोद में गिरते ही मोक्ष दे दिया
धरती मां ने माथा चूमकर।