संत रविदास जी
लेखिका: आयरन लेडी रीना सिंह
संत रविदास जी
संत रविदास का व्यक्तित्व इतना प्रभावशाली था कि उच्च वर्ण और द्विज जाति के विद्वान लोग भी उसका सत्कार करने लगे थे। दृढं संकल्प, आत्मानुभव, भगवान में अटूट भक्ति और विश्वास के कारण उनमें हीन – भावना लेश मात्र भी नहीं थी। वह बेधड़क अपना पैतृक काम करते और बेधड़क ही भजन - कीर्तन करते थे। मृदु स्वभाव, महान विचार, आत्मानुभव, आत्मविश्वास और आत्मसम्मान के कारण उनके अंदर एक ऐसी प्रतिभा जाग्रत हो चुकी थी कि जो भी उनके संपर्क में आता था मंत्र – मुग्ध हो जाता था।
वे सीधा जीवन व्यतीत करते थे। हाथ का कमाया खाना, थोडे में संतुष्ट रहना, सुख दुःख में मन:स्थिति को समान रखना आदि उनके स्वभाव के अंग बन चुके थे। सच्ची कमाई और सदाचार के साथ उपार्जित धन में से साधु संतो की सेवा करना और दीन हीनों से प्रेम उनकी स्वाभाविक वृत्तियां थीं उनकी यह साखी इसका प्रमाण हैं।
वे गृहस्थ रहते हुए भी संसार से निर्लिप्त रहते थे जल के कमल की भांति उनका स्वभाव था। रविदास का अपने को औछा - नीच – दीन – हीन और बुध्दिहीन आदि कहना उनकी विनय और विनम्रता की पराकाष्ठा और भक्ति की चरमोनन्ती के करण ही था। संत – स्वभाव के अनुरूप उन्होंने अपने से पहले आने वाले और समकालीन सभी सन्तों के प्रति सदभावना प्रकट की हैं, क्योंकि वैष्णव – संप्रदाय में संत और वैष्णवजन की सेवा भगवान के बराबर मानी गई है| बचपन से ही उनकी साधु – सेवा की ओर प्रवृत्ति थी। संत रविदास निष्काम भक्त थे उनके हृदय में कोई भी अभिलाषा नहीं थी। उनकी इसी निष्काम भक्ति की परवर्ती संतों ने मुक्त कंठ से प्रशंसा की है रज्जब ने कहा है। उन्होंने लोकभाषा को माध्यम बनाया था और उनकी भाषा सरल और लोक ग्राह्य थी। उन्होंने गूढ़ से भावों को भी बड़ी सहज और सरल रीति से पेश किया था।
कवि होने के साथ साथ रविदास जी क्रांतिकारी और मौलिक विचारक भी थे। कुछ लोगों ने उन्हें वेदानुगामी भी कहा है। परंतु ऐसा नहीं है। परंपरागत विचारों की धरोहर से कोई भी विचारक पूर्णतया मुक्त नहीं हो सकता। उन्होंने लोक में जो कुछ परंपरागत प्रचलित देखा उसको सत्य की कसौटी पर परिमार्जित किया, जो उन्हें ठीक लगा उसका उन्होंने निर्भय होकर प्रचार किया।
रविदास स्वभावत: मानवतावादी थे आजकल के समाज सुधारकों की तरह प्रचारक नहीं थे। इसलिए भक्ति के द्वारा प्रज्ञा और चेतना की पूर्ण अधिकारिता के प्राप्त होने के पश्चात भी समाज की दीनहीन – अवस्था, दुर्दशा और भेद – भाव उनकी आंखों से ओझल नहीं हो सके थे।
उन्हें कट्टर पंथियों से संघर्ष करना पड़ा और अंतत: जीवन का बलिदान देना पड़ा। वे प्रभु परायण, जातियता के कट्टर विरोधी, मानव समानता के कट्टर समर्थक, सर्वहितकारी, स्वतंत्र चिंतक और उदार संत थे। संत रविदास मूलत: भक्त थे - कवि या साहित्यकार नहीं थे उनका उद्देश्य साहित्य सृजन नहीं था उनकी रचनाएं तो उनकी प्रेमानुभूति और रहस्यानुभूति की सहज अभिव्यक्ति थीं। रविदास जी एक अत्यंत विनीत, राग– द्वेष रहित, खंडन – मंडन प्रवृत्ति से विहीन, उच्च कोटि के संत, विचारक और कवि थे| उनकी वाणी सरल और सुबोध होती हुई भी क्रांतीकारी विचारों और उत्कट भक्ति – भावना से पूर्ण थी। डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी लिखते हैं, “आडंबर, सहज शैली ओर निरीह आत्मसमर्पण के श्रेत्र में रविदास के साथ कम संतों की तुलना की जा सकती है |
निवृत्ति ज्ञानदेव सोपान चांगाजी, मेरे जो के है जी नामदेव।
नागाजन मित्र नरहरि सुनार, रविदास कबीर सगे मेरे।- तुकाराम आचार्य पृथ्वी सिंह आजाद रविदास जी की भेंटवार्ता गुरुनानक से बनारस में हुई थी। कुछ विद्वान यह भेंट – वार्ता अयोध्या में मानते है। दोनों संतो के इस साक्षात्कार का समय स. 1555 वि. या सन् 1495 माना गया है। इस समय रविदास जी 122 वर्ष के थे। गुरु नानक देव की उदासी या देशाटन का काल सन् 1497 से 1522 ई. तक माना गया है। उसी समय गुरु नानक का कबीर के साथ मिलन संभव है। कंबीर उस समय वाराणसी छोड़कर मगहर चले गए हों ओर वे वहीं उनसे मिलने गए हों।
गुरु ग्रंथ साहब में रविदास की प्रशंसा लिखी गई है, परंतु वह गुरु नानक द्वारा न होकर गुरु रामदास और गुरु अर्जुन द्वारा रचित है।
रविदास चमारू उस्तति करै हरि की रीति निमिख इक गाई
पतित जाति उत्तम भया,चारि बरन पए पगि आई
रविदास ध्याय प्रभु अनूप, गुरुदेव “नानक” गोबिंद रूप।