अशोक वाजपेयी और साहित्य अकादेमी पुरस्कार की गरिमा!
लेख़क: राजीव कुमार झा
केदारनाथ सिंह के कविता संग्रह अकाल में सारस तक साहित्य अकादेमी पुरस्कार ठीक ठाक ही रहा लेकिन इसके बाद फिर साहित्यकारों की प्रशस्तियों में उनको अद्भुत भाषिक बिंब, अभिव्यक्ति में प्रयोगशीलता, मानवीय - सामाजिक प्रतिबद्धता इन सबका चितेरा बताया जाने लगा और यह सब एक बकवास ही साबित हुआ। पुरस्कार अच्छी कृतियों को ही दिया जाय और लघु पत्रिकाओं के लेखकों को इससे दूर रखना चाहिए क्योंकि वे साहित्य के निष्काम कर्मयोगी माने जाते हैं। उनके लेखन से संपादक पैसा कमाता है। साहित्य अकादेमी पुरस्कार की सारी प्रतिष्ठा चौपट हो गई। कुछ खास तरह के लेखक इस पर हावी हो गये।
साहित्य अकादेमी की पत्रिका समकालीन हिंदी साहित्य में दिल्ली के जो लोग वहां दफ्तर में आकर अपनी रचनाएं संपादक के हाथों में थमाते हैं। यहां इस पत्रिका में इस प्रकार के लेखकों की रचनाएं मुख्य रूप से छपती हैं और दूर दराज के लेखकों की रचनाएं कड़े में फेंक दी जाती हैं।
आजकल बलराम इसके संपादक हैं और खुद को लघुकथाकार बताते हैं। ऐसा कोई कोश भी उन्होंने बनाया है और पहले राजकमल प्रकाशन में थे ।साहित्य अकादेमी के खिलाफ कोई हिंदी लेखक कुछ नहीं बोलता है क्योंकि उन्हें लगता है कि फिर पुरस्कार मुझे नहीं मिलेगा। ब्रजेन्द्र त्रिपाठी काफी समय तक वहां हिंदी का काम देखता रहा और एक देवेश को सहायक बनाया था। दिन भर ललित कला अकादेमी जाकर ज्योतिष जोशी से गप्पे लड़ाता था। ज्योतिष जोशी ने नौकरी पाने के लिए नेमिचन्द्र जैन की खूब सेवा की और हिंदी अकादमी, दिल्ली का सचिव भी वह बन गया था। उसे अशोक चक्रधर ने हटवाया दिया था। चक्रधर अवसरवादी लेखक माना जाता है और वह कभी मदनलाल खुराना का आदमी माना जाता था , इसके अलावा कपिल सिब्बल से भी उसकी दोस्ती रही । एक अलग ही तरह का सामाजिक चरित्र वह माना जाता है।
साहित्य अकादेमी, दिल्ली सिर्फ राजधानी दिल्ली के लोगों की संस्था बनकर रह गयी है। अशोक वाजपेयी जब महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति बने तो यह संस्था भी दिल्ली की संस्था बनकर मात्र रह गयी थी। वह अपना परिवार भी वहां लेकर नहीं गये। यहीं पर सारे कार्यक्रम होते थे और दिल्ली के तथाकथित साहित्यिक ठेकेदारों को यहां पत्रिका फिल्म किताब प्रकाशन के काम बांटे जाते थे।
वाजपेयी से मैं सिरी फोर्ट के पास के किसी मकान में इस विश्वविद्यालय के दफ्तर में मिला था और फिल्म का काम करने की इच्छा प्रकट की लेकिन सारा काम के.विक्रम सिंह कर रहा था और वह एक घृणित चरित्र था।बोलना चालना भी नहीं जानता था।
साहित्य अकादेमी पुरस्कार लेकर ज्यादातर लोग बैठ जाते हैं और लेखन की इतिश्री समझ लेते हैं। उन्हें जीवन में सिर्फ सम्मान का बोध होता रहता है मानो वह साहित्य के ठेकेदार हों और लेखन बस उन्होंने ही किया हो। हिंदी में पिछले कुछ सालों से साहित्य अकादेमी पुरस्कार जिन लेखकों को दिये जा रहे हैं, सरकार के द्वारा उसकी जांच कराई जानी चाहिए। आखिर साहित्य की बेइज्जती करने के लिए यह संस्था तो नहीं बनाई गयी है और न ही प्रगतिशील लेखक संघ अपने पैसों से इस संस्था को चलाता है। तो फिर सरकार जांच करवाने से डरती क्यों है?
साहित्य अकादेमी की हिंदी पुरस्कार समिति में कविता कहानी को समझने वाले लोग क्या इस बात को जानते हैं कि आज हिंदी में कुछ भी नहीं लिखा जा रहा है और लेखन सिर्फ एक आवारगी भर रह गया है।