परंपरा पर संकट: परसागढ़ के कारीगरों की हुनरमंद दुनिया हुई खामोश, अब पलायन को मजबूर!
सारण (बिहार) संवाददाता मनोज कुमार सिंह: सारण जिले के एकमा प्रखंड के परसागढ़ बाजार के कसेरा टोली मोहल्ला में बर्तन निर्माण की परंपरा कभी क्षेत्र की पहचान हुआ करती थी। देश की आज़ादी के समय से ही यहां के लोग तांबा, कांसा व पीतल के टुकड़ों को पिघलाकर बेहद खूबसूरत बर्तन बनाते थे। लगभग 500 लोग इस पारंपरिक पेशे से कारीगर या मजदूर के रूप में जुड़े हुए थे, जो उनके व उनके परिवार की आजीविका का मुख्य साधन था।
परसागढ़ के बने लोटा, करछुल, हांडा, बाटुला व अन्य पीतल के बर्तन शादी-विवाह के अवसरों पर खरीदने के लिए दूर-दराज से लोग आया करते थे। यहां के बर्तनों की मांग देश-विदेश तक थी। सहकारी समिति के माध्यम से इन कारीगरों को सरकार द्वारा अनुदानित दर पर धातु के टुकड़े उपलब्ध कराए जाते थे, जिससे उन्हें कारोबार में न पूंजी की दिक्कत होती थी, न ही सामग्री की। बिक्री के बाद सरकारी राशि वापस कर दी जाती थी।
प्रदर्शनियों में भी परसागढ़ के बर्तन सुर्खियां बटोरते थे। दिल्ली सहित कई बड़े मंचों पर यहां के कारीगरों को अपनी कला दिखाने का अवसर मिला और वे कई बार सम्मानित भी हुए। लेकिन 2002 से 2006 के बीच सरकार द्वारा अनुदानित दर पर धातु के टुकड़ों की आपूर्ति धीरे-धीरे बंद कर दी गई। इसके बाद यह परंपरागत पेशा धीरे-धीरे बंदी की कगार पर पहुंच गया।
आज स्थिति यह है कि अधिकांश कारीगर बेरोजगार हो चुके हैं और जीवन यापन के लिए उन्हें दूसरे शहरों की ओर पलायन करना पड़ा है। कसेरा टोली व आसपास के इलाके के लोग मानते हैं कि अगर सरकार उन्हें आधुनिक तकनीक का प्रशिक्षण दे और सहकारी समिति को पुनः सक्रिय करते हुए अनुदानित दर पर धातु के टुकड़े उपलब्ध कराए, साथ ही एक आधुनिक कार्यशाला का निर्माण कराए, तो यह हुनरमंद परंपरा फिर से जीवित हो सकती है।
स्थानीय लोगों का यह भी कहना है कि इस महत्वपूर्ण मुद्दे पर कभी शासन-प्रशासन का ध्यान नहीं गया और न ही यह कभी चुनावी मुद्दा बना। कई बार सांसद-विधायक से संपर्क के बावजूद कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया। बावजूद इसके, परसागढ़ के कारीगरों को आज भी उम्मीद है कि एक दिन सरकार व जनप्रतिनिधियों की सकारात्मक पहल से उनका पारंपरिक पेशा फिर से चमक उठेगा।