मनभावन कलाकंद की कहानी! कैसे बन गई जीभ की पसंदीदा?
///जगत दर्शन न्यूज
✍️धर्मेंद्र रस्तोगी
1947 में लाहौर से विस्थापित होकर दो परिवार भारत के दो अलग हिस्सों में पहुंचे। भाटिया परिवार बिहार जो आज झारखंड है वहां के झुमरी तलैया पहुंचा और ठाकुर दास का परिवार अलवर पहुंचा। दोनों मिठाई बनाने के कारोबार से संबंधित थे। ठाकुर दास एक दिन दूध गर्म कर रहे थे, इस दौरान दूध फट गया तो उन्होंने उसमें थोड़ा सा पनीर और चीनी डाली फिर पकाकर एक बर्तन में जमा दिया। उसके बाद जब वह ठंडा हुआ तो अंदर से कुछ लाल निकला। इसका स्वाद भी बेजोड़ था जिसपर उन्होंने इसका नाम कलाकंद रख दिया।
कलाकंद के स्वाद की महक से झुमरी तलैया भी अछूता नहीं रहा। भाटिया परिवार ने भी छेने से मलाईदार मिठाई की नई डिश तैयार की और उसका भी नाम कलाकंद रखा।दूध से निर्मित छेना में आसानी से क्रिस्टल जमा होते हैं, फिर यह ठंडा होने पर कलाकंद का रूप ले लेता है। इसके ऊपर केसर, पिस्ता और बादाम से गार्निशिंग की जाती है। शुद्ध दूध की वजह से कलाकंद दानेदार और काफी स्वादिष्ट होता है। एक किलो कलाकंद बनाने में 6 से 7 लीटर दूध का उपयोग होता है।
पहले कलाकंद को मिट्टी की भट्टी पर लकड़ी से बनाया जाता था और मिट्टी के पात्र में दूध औटाने से इसका स्वाद बेजोड़ हो जाता था, बनने के बाद इसे दोने में परसा जाता था।झारखंड होते हुए कलाकंद बनारस और बंगाल पहुंचा। बनारस से जौनपुर, प्रयागराज और कानपुर पहुंचा। इधर अलवर का स्वाद दिल्ली और इंदौर में सुगंधित होने लगा। धीरे धीरे कलाकंद मिष्ठान्न प्रेमियों के जिव्हा पर राज करने लगा।
आज अलवर के घंटाघर में ठाकुरदास की तीसरी पीढ़ी कलाकंद बना रही है जिसकी मिठास भारत से लेकर विदेशों में फैली है वहीं झुमरी तलैया में आनंद विहार अपने पारंपरिक स्वाद के लिए जानी जाती है।
बरसते सावन में नरम मुलायम केसर वाला कलाकंद खाने को मिल जाए तो बस आहा आहा!!
सावन मिठाई खाने का महीना है। सत्तमी, तीज, नागपंचमी, रक्षाबंधन जैसे त्योहारों पर मालपुए, सेवई, पेड़े, कलाकंद से महकती रसोई और बैठका अमरावती से कम नहीं है।
(चित्र: आकांक्षा प्रिया द्वारा दो अलग वैरायटी में बनाया गया कलाकंद)