पिता का अनुशासन और संघर्ष बनी बेटे की प्रेरणा!
/// जगत दर्शन न्यूज
पिता पूजनीय होते है। हर पुत्र और पुत्री को अपने पिता पर गर्व तो होता ही है। दरअसल पिता ही वो ईश्वर होता है जो एक पुत्र के अंदर आस्था के रूप प्रेरणा के साथ अपने संघर्ष को जीवंत करते हुए आगे की जीवन को सुखमय बनाता है। वहीं कभी कभी पिता की यादें हर पल प्रेरणादायक बनाती है। ऐसा ही एक उदहारण देखने को मिलता है अखिल भारतीय पत्रकार सुरक्षा समिति के राष्ट्रीय प्रवक्ता मनोज कुमार सिंह और उनके पिता स्वर्गीय कृष्ण कुमार सिंह के जीवन की संघर्ष के साथ पट कथा लिखते उनकी यादें। अपने संघर्षमय और प्रेरणादायक यादों को साझा किया है पत्रकार मनोज कुमार सिंह ने जो हम सभी के लिए प्रेरणादायक साबित होगी।
पितृ दिवस पर अपने बाबूजी से जुड़ी यादें।
पितृ दिवस के अवसर पर अपने आदरणीय बाबूजी स्व कृष्ण कुमार सिंह से जुड़े कुछ यादगार संस्मरण आपके बीच साझा कर रहा हूँ। वर्ष 1927 में जन्में हमारे बाबूजी दस अगस्त 2011 एकादशी तिथि को हमलोगों को छोड़कर सदा के लिए चिरनिद्रा में सो गए। सादा जीवन और उच्च विचार के पोषक बाबूजी बेहद संवेदनशील और सँयुक्त परिवार के वास्तविक प्रेरक थे। हमारे बाबा चार भाई क्रमशः स्व राम नारायण सिंह स्व जगत नारायण सिंह,स्व जय नारायण सिंह तथा स्व लोकनाथ सिंह की आजीवन मनोयोग से सेवा सुश्रुषा करने से लेकर नीचे की चार पीढ़ियों तक के परिजनों के बीच उन्होंने कभी भी अपनत्व की कमी महसूस नही होने दिया।
नन मैट्रिक होने की वजह से आरपीएफ तथा बिहार पुलिस में सिपाही के पद पर ही रहे।
घर के सभी बच्चे सम्मानपूर्वक उन्हें बाबूजी कहकर ही सम्बोधित करते थे। नन मैट्रिक होने की वजह से आरपीएफ तथा बिहार पुलिस में 60 वर्ष तक सिपाही के पद पर ही बने रहे बाबूजी नशा के रूप में एकमात्र खैनी का सेवन करते थे। यह एकलौता लुत्फ भी शायद रात्रि गश्ती में नींद से बचने के कारण ही उनके साथ आजीवन बना रहा।
वर्दी का धौंस व खौफ दिखाकर कभी रिश्वत नही ली!
यह कहने में तनिक भी हिचक नही की नौकरी में तनख्वाह बहुत ही कम रहने के बावजूद उन्होंने वर्दी का धौंस व खौफ दिखाकर कभी रिश्वत नही ली। यही नही पूरी नौकरी उनका अपना कोई बैंक एकाउन्ट तक नही रहा। हाँ, रिटायरमेंट व पेंशन की रकम प्राप्त करने के लिए नौकरी के अंतिम चरण में उन्हें मजबूरन बैंक में अपने नाम का एकाउन्ट खुलवाना पड़ा था। नौकरी के अंतिम वर्ष में अपने गृह जिला सारण के रिविलगंज थाना में उनकी पोस्टिंग हुई। ड्यूटी से मौका निकालकर वे अपनी साइकिल से सुबह शाम खाना खाने घर आ जाते थे अथवा हमलोग थाना पर ले जाकर उनका खाना पहुँचा देते थे। मौका मिलने पर उनकी साइकिल चलाने में हमलोगोँ को बड़ा ही आनंद आता था।पाठकों को इस बात का आश्चर्य ही होगा कि पूरी जिंदगी उन्होंने होटल अथवा थाना के मेस में कभी खाना नही खाया। तनावपूर्ण ड्यूटी अथवा खाना बनाने का मौका नही मिलने पर वे खाकी रंग के अपने झोले में रखा चूड़ा गुड़ अथवा चने की सत्तू से ही अपना काम चला लेते थे।
शाकाहारी रह कर किया समाज सेवा
बेहद दयालु व परिश्रमी स्वभाव के होने के कारण रिटायरमेंट के बाद बुढ़ापे में भी अपने दरवाजे से लेकर सरयु नदी के किनारे तक झाड़ू लगाना रास्ता साफ रखना उनकी दिनचर्या सी बन गई थी। दुर्बयसन व मांसाहार से कोसों दूर रहकर जीवन के अंतिम क्षणों तक गीता रामायण आदि धार्मिक ग्रन्थ का अध्ययन व पूजा पाठ में ही उन्होंने अपना शेष जीवन ब्यतीत किया। बाबूजी से जुड़े संस्मरण व उनके आदर्श तथा अनुशासन विपरीत परिस्थितियों में भी हमें सम्बल प्रदान करते हैं। हमें गर्व है कि हम उस महान इंसान की संतान हैं। नमन बाबूजी।
✍️मनोज कुमार सिंह (राष्ट्रीय प्रवक्ता,अखिल भारतीय पत्रकार सुरक्षा समिति)