कलमकार
/// जगत दर्शन साहित्य
पूछा किसी ने मुझसे,
ज़रा अदब से
रोज़मर्रा क्यों चलती है कलम तुम्हारी, एक लय से....
सुबह, शाम, दिन रात अपने इर्दगिर्द को
उकेरती है कलम तुम्हारी,
सच्चे अल्फ़ाज़ से...
कहा मैंने, नफ़रत है मुझे, अख़बार में आये
अर्धसत्य, अर्ध मिथ्या की छींटाकशी से....
किसी ने पूछा, क्या तुम्हारी लेखनी की सच्चाई
ढंक जाती है समाज व्यापी घिरे सफ़ेद झूठ से???
या अल्फ़ाज़ को अनछुआ रख लेती हो
दुनियादारी में घिरे हुजूम से....
हाँ सच है यह , रसद जुटती नहीं कलम की
ज़मीं आसमां, चांद, तारों के ख़्वाबों ख़्यालों से...
कलम बेकल,
प्रभावी हो उठती है, लोगों की
भूख़, बेरोज़गारी,
नंगे बदन की अस्थि मज्जा से
दिल रोता है
अपनी लाचारी पर,
मगर
काग़ज़ भरती है कलम
निरंतर, कटाक्ष भरे अल्फ़ाज़ से
विश्वास है मेरी जगह
कल और आयेंगे
नये कलमकार
बयां करेंगे लोगों की सच्चाई, सच्चे कलम की धार से....
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