जीवित्पुत्रिका व्रत कथा!
जीवित्पुत्रिका व्रत कथा!
(काव्य रूपांतरित)
ऋषि नैमिषारण्य के गये सूत ऋषि पास।
जग के कल्याणार्थ लिये, निज मन में विश्वास।।
चिरंजीव बालक बनें, करें सेवा सत्कार।
मात-पिता के सामने, खेलें जस राजकुमार।।
कहे सूत भक्तों सुनो, तन मन प्राण लगाय।
द्वापर अंत कली आदि में, ढूंढत यहीं उपाय।।
गये गौतम ऋषि पास में, सादर नेह लगाय।
बालक दीर्घायु बनें, कहो कुछ आप उपाय।।
जो मैं सुना वही कहूँ, बातें सुन लो बातें ध्यान से।
पांडव ने भी सुना धौम्य से, बैठ सुनो सम्मान से।।
जीमूतवाहन नाम का प्यारे, समदर्शी इक राजा था।
सतभाषी, सतगुणी, सात्विक, न्यायप्रिय रथ साजा था।।
पत्नी संग ससुराल गया और हुआ वही का वासी।
हँसी खुशी से रहा जहाँ पर रहते थे पुरवासी।।
एक दिन आधी रात को हुआ दुखद संताप।
फटा कलेजा जा रहा, सुनकर वृद्धा विलाप।।
कोई बचाये आई के, आज स्वर्ग का दूत।
मारा जाये देख लो, मुझ अबला का पूत।।
जीर्ण अवस्था हूँ वृद्धा, नहीं सहारा कोय।
हे प्रभु रक्षा कीजिये,आप करे सो होय।।
जीमूतवाहन पास गये, जाकर जोड़े हाथ।
हे माता सच-सच कहो, अपनी मन की बात।।
वृद्धा कही राजन सुनो, मुझ दुखिया की बात।
चिंता अपने पूत की, हमें रहे दिन रात।।
नित्य गरुण आकर यहाँ, खाता एक संतान।
आप बचाकर कीजिये, कारज नेक महान।।
रोज इक बालक देने की, सबने की तैयारी है।
मेरे इकलौते बेटे की, सुन लो कल ही बारी है।।
नाम शंखचूड़ है उसका, कोमल और दुलारा।
इकलौता है वही हमारे, जीवन का सहारा।।
सुनकर कलप रहे थे जिमूत, धरे गरुड़ का ध्यान।
धीरज धारण करो हे माता, होगा नित् कल्याण।।
ठंढी सांस लिये जीमूत फिर, धरे हरि का ध्यान।
बढ़े शीला की ओर जहां, थी वह नियत स्थान।।
कपड़े लाल लपेटे तन पर, लेट गये निर्भेद।
झपटा गरुड़ लिया पंजे में, समझ ना पाया भेद।।
देखत ही टूट पड़ा गरुड़, खाने में किया न देर।
बाम अंग खाते ही जीमूत, दिये दाहिना फेर।।
ऐसा साहस देख गरुड़ को, विस्मय भई अति घोर।
कौन साहसी यहाँ जिसे नहीं, मृत्यु का भय थोर।।
मौत को आगे पाकर भी तुम तनिक नहीं घबराते हो।
वीर बताओ दर्द तू इतना, कैसे सहन कर पाते हो।।
देव हो या गंधर्व हो या फिर किस कुल के तुम बालक हो।
अपनी चिंता छोड़े तुम बोलो कैसे प्रतिपालक हो।।
क्या रखा इन बातों में तुम, खाओ मेरा मांस।
पीछे नहीं हटूंगा जब तक, चलेगी मेरी साँस।
रुके गरुड़, सादर राजा का, साहस मान बढ़ाया।
फिर राजा ने अपने कुल का, भेद उन्हें बतलाया।।
सूर्य वंश में जन्मा, शालिवाहन का संतान हूँ।
माँ शैव्या का बड़ा दुलारा, इक सुंदर पहचान हूँ।।
जीमूतवाहन नाम मेरा, मानवता का मैं रक्षक हूँ।
दया करूँ सब जीवों पर, मैं दानवता का भक्षक हूँ।।
जी भर खाओ मांस हमारा, तनिक नहीं संकोच करो।
दया करो औरों पर तुम भी, काम जरा ये सोच करो।।
खुश होकर फिर कहा गरुड़ ने, तुम हो बड़े दयालु।
मांगो जो हो मन में राजन, तुझ पर हुआ कृपालु।।
हरि सम दीनदयाल आप हो, हरि सम लगते प्यारे।
दर्शन हुए आपकी जीमूत, हैं बड़ भाग्य हमारे।।
ऐसी बातें सुनी गरुण की, तन मन उनका जगा।
मानवता की रक्षा हेतु, उनसे वर यह मांगा।।
जीवित करो उन सब जीवों को, जिनको अब तक खाया है।
अभयदान दो उन बच्चों को, जिसने जीवन पाया है।।
देकर यह वरदान गरुड़ फिर, नागलोक प्रस्थान किये।
अमृत वर्षा कर हड्डी पर, सबको जीवन दान दिये।।
राजा का यह त्याग देखकर, गरुड़ बहुत हरषाये।
बाकी अमृत राजा के तन पर, प्रेम सहित बरसाये।।
अमृत के प्रभाव से तन की, शोभा हो गई दूनी।
उनके त्याग तपस्या से, कोई रही न आंगन सूनी।।
हर्षित राजा हुए गरुड़ को, श्रद्धा सहित प्रणाम किया।
जग के कल्याणार्थ गरुड़ ने, अभय दिव्य वरदान दिया।।
आश्विन कृष्ण सप्तमी रहित, शुभ अष्टमी तिथि है आज।
तेरे त्याग तपस्या से, जगमग है सकल समाज।।
राजन तिथि यह दिव्य अमर हो, ब्रह्म भाव को पाई है।
अनंत नाम, त्रैलोक्य पूजित, दुर्गा अमृत बरसाई है।।
संतान जीवित करने से माँ का, जीवित्पुत्रिका नाम पड़ा।
करे जो व्रत इस दिन नारी, होवे उसका सौभाग्य बड़ा।।
कुश की तेरी बना आकृति, जो भी नारी पूजेगी।
किलकारी उसकी आंगन में, सदा अभय हो गुँजेगी।।
सप्तमी रहित शुद्ध अष्टमी हो, उदयाष्टमी को जान।
वंश बढ़े, सौभाग्य अखंडित, कहे गरुड़ भगवान।।
गरुड़ गये बैकुण्ठ को, राजा भी निज धाम।
कहे धौम्य द्रौपदी करो, दुर्लभ व्रत अविराम।।
शुभ अष्टमी में व्रत कर जो, नवमी में पारण करता है।
उनके बच्चों का दुश्मन तो, बिन मार ही मरता है।।
कहे बिजेन्दर जीवित्पुत्रिका, व्रत का यही विधान।
सदा करो सद्भाव से तो, खुश होंगे कृपा निधान।।
दूसरी कथा:-
दूसरी कथा सुनाता हूँ मैं, जीवित्पुत्रिका व्रत की।
जीवन को साहस देता है, सुन लो ऐसे सत् की।।
पूर वासिन के साथ द्रौपदी, ने विधि से उद्यान किया।
नेह नियम से हाथ जोड़कर, व्रत को विधि विधान किया।।
नर्मदा नदी के तट पर सुन लो, एक घने जंगल में।
चिल्ही और सियारिन सखियाँ, रहती थी मंगल में।।
सेमर तरु पर चिल्ही रहती, झाड़ी बीच सियारिन।
अपना भोजन बाँट के खाति, ऐसी प्रेम पुजारिन।।
व्रत करते देखा चिल्ही ने, इक पीपल के नीचे।
पीपल की डाली पर बैठी, सुनती आँखें मीचे।।
जाकर बोली सुन री सखिया, पावन अमृत ज्ञान।
जीवित्पुत्रिका व्रत का उससे, कहने लगी विधान।।
जीवित्पुत्रिका व्रत की महिमा, कहते नहीं अघाती।
जो नारी इस व्रत को करती, सकल मनोरथ पाती।।
अक्षुण हो सौभाग्य सखी, सब बच्चे हों दीर्घायु।
माता के करने से पुत्र की, बढ़ जाती है आयु।।
चलो सखी दोनों करते हैं, मिल संग में तैयारी।
अपना हो उद्धार बाधाएँ, मिट जाती हैं सारी।।
सप्तमी तिथि को खाये नहाये, अष्टमी को किया उपवास।
कर न सकी बर्दाश्त सियारिन, थोड़ी भी भूख प्यास।।
उत्तम ब्राह्मण मुख से चिल्ही ने व्रत का रसपान किया।
जीमूतवाहन और दुर्गा का, अपने मन में ध्यान किया।।
आकर पीपल की डाली पर, चिल्ही बैठ बुलाई।
जीवित्पुत्रिका व्रत की कथा, सियारिन को समुझाई।।
भूख प्यास से पीड़ित सियारिन, उलझी अपने ध्यान में।
कथा बीच में छोड़ चली वह, भोजन को श्मशान में।।
इच्छा भर खा मांस सियारिन, पीपल नीचे आई।
अनहोनी को भाँप के चिल्ही, उसे बहुत समझाई।।
हड्डी कट कट की अवाज, सखिया मैं क्यों सुनती हूँ।
तेरा व्रत है भंग देखकर, तुझको यह गुनती हूँ।।
व्रत को विधिवत करने से, यह जीवन धन्य हो जाता।
आने वाले कल की बातें, तुझको नहीं सुहाता।।
चिल्ही भूखी प्यासी रहकर, व्रत का सकल विधान किया।
होत सबेरे गौशाले से, पावन गोरस पान किया।।
व्रत के पुण्य प्रभाव से चिल्ही, हुई पाप से दूर।
पाप में लिपटी रही सियारिन, रहती थी मगरूर।।
समय बीतते दोनों ने, इस नश्वर तन को त्यागा।
अयोध्या के व्यापारी घर, जन्म लिये तन जागा।।
बड़ी सियारिन भई, चिल्ही छोटी दिव्य स्वरूप।
शुभ लक्षण से भरी थी दोनों, सुंदर और अनूप।।
हँसती खिलती बड़ी हुई, फिर जल्दी हुई सयानी।
शुभ लक्षण से भरी थी दोनों, धी मृगनयनी रानी।।
बड़ी काशीराज, छोटी मंत्री के संग व्याही।
खुशी खुशी रहती थी दोनों, खुशियाँ थी मनचाही।
पुण्य कर्म से मंत्री पत्नी, ने पावन सत्कर्म किया।
आठ वसु से दिव्य यशस्वी, आठ पुत्र को जन्म दिया।
सुन्दर और सुसज्जित बालक, आठो थे नादान।
जहाँ भी जाते सादर पाते, सेवा और सम्मान।।
मात-पिता के पावन पुण्य तो, पुत्रों के पथ आते हैं।
सत्कर्मों का फल सब अपने, निज जीवन में पाते हैं।
मंत्रि पुत्र तो मातृ पुण्य से, दिव्य अलौकिक लगते थे।
मधुर मधुर मुस्कान से अपने, सब लोगों को ठगते थे।।
मंत्री पुत्रों को देख के रानी,मन ही मन जलती थी।
हँसी तो उसको रास न आती, मिटती और मचलती थी।।
पाप प्रभाव से उसकी कोख में, बच्चे नहीं ठहरते थे।
जन्म भी लेकर कुछ ही दिन में, वो खुद ही खुद मरते थे।।
पुत्र मरण से ज्यादा उसको, बहन पुत्र से शोक हुआ।
उसके दुषित विचार से जानों, विधि का बड़ा प्रकोप हुआ।।
ईर्ष्या वस रानी ने एक दिन राजा को बुलवाया।
अपने मन का राज खोलकर, सारा भेद को बताया।।
चाहो मेरा जीवन तो, मंत्री पुत्रों को मरवाओ।
जहां गए हैं मेरे बेटे, वही उन्हें भिजवाओ।।
उनका करवा दो राजन, झट से काम तमाम।
वरना तेरा कर दूंगी मैं, जीना सुनो हराम।।
कई जतन से राजा, मंत्री पुत्रों को मरवाया।
जीवित्पुत्रिका पुण्य से मंत्री, पत्नी ने उन्हें बचाया।।
खबर भिजाकर राजा, इक सैनिक को झट बुलवाये।
मंत्री पुत्रों का सर, बेरहमी से थे कटवाये।।
बंद पिटारी में सर रखकर, सैनिक राजा पँह लाया।
राजा वहीं पिटारी, मंत्री पत्नी को भिजवाया।।
उसके पुण्य प्रभाव से भक्तों, बदल गई सब बात।
खुलत पिटारी निकले उसमें, हीरे-जवाहरात।।
कुछ ही समय में मंत्रि पुत्र भी, हँसते घर को आये।
इसे देख राजा-रानी, दोनों भी बहुत घबराये।।
दर्द से बिह्वल व्याकुल रानी, मन ही मन पछताई।
उल्टे पड़ते दाव मंत्री पुत्रों पर लगवाई।।
थक हारकर रानी ने, मंत्री पत्नी को बुलवाया।
मन मालिन बिह्वल मती होकर, पास उसे बैठाया।।
बोली बहना किस तप से, अपना परिवार चलती हो।
विधि कौन अपना कर, अपने पुत्रों को बचाती हो।।
कई विधि अपनाकर मैं, तुझको हानी पहुँचाई।।
कहीं किसी भी मोड़ पर, सफल नहीं हो पाई।।
तेरे शरणागत हूँ मुझको, अपने गले लगाओ।
किस तप से रक्षा करती हो, खुलकर राज बताओ।।
मंत्री पत्नी बोली बहना, पूर्व जन्म की बात है।
उसी समय के पाप से तेरे, बिगड़े अब हालात हैं।।
मैं चिल्ही और तू थी सियारिन, नर्मदा तट पर रहते थे।
जीवन के सुख-दुख बहना हम, साथ-साथ मिल सहते थे।।
पूर्व जन्म में प्यारी बहना, थी तू मेरी सहेली।
संग सोती थी, संग खाती थी, रहती नहीं अकेली।।
जीवित्पुत्रिका व्रत की महिमा, जब से मैने जाना।
तेरे संग व्रत करने का फिर, अपने मन में ठाना।।
नियम कर्म से मैने की पर, तूने नहीं विधान किया।
रुधिर मांस सब खाकर तूने, माता का अपमान किया।।
इसी पाप से तेरे बेटे, बिन मारे मर जाते हैं।
फूटे तेरे भाग्य री बहना, तुझे समझ नहीं आते हैं।।
धीरज मन में धरकर रानी, जीवित्पुत्रिका व्रत करो।
समझो विधि विधान को पहले, अब इससे मत टरो।।
रानी ने व्रत विधिवत करके, पारण से उद्यान किया।
मन में मंगल कामना लेकर, मन से मां का ध्यान किया।।
व्रत के पुण्य प्रभाव से रानी, सकल मनोरथ पाई।
हुवे यशस्वी पुत्र चहूँ दिशी, जय जय घोष मनाई।।
जो चाहे संतान वो मां के व्रत में नेह लगाये।
कहे बिजेन्दर पुण्य प्रभाव से, सकल मनोरथ पाये।।
✍️बिजेन्द्र कुमार तिवारी (बिजेन्दर बाबू)
गैरतपुर, माँझी सारण (बिहार)
मोब. 7250299200