आदमी की बची हुई समझदारी!
(कहानी)
✍️राजीव कुमार झा
आदमी की बची हुई समझदारी!
सुमित से रानू की यह अंतिम मुलाकात यादगार बन गयी थी और उसने नेहा को उसके बाद फोन पर कहा था कि वह स्टेशन पर उससे अगर मिलने नहीं आता तो वह उसे बिल्कुल भूल जाती और उसके बारे में किसी को कुछ भी नहीं बताती। पहाड़ों की रानी मसूरी में बारिश जब शुरू होती है तब यहां का मौसम और भी सुहावना हो जाता है और इसके खत्म होने के बाद रात में बाजार की चहल पहल में सबके चेहरे पर सुकून फैला दिखाई देता है। देहरादून से बनारस लौटते हुए रानू को ऐसा लगा था मानो यह शहर उसे अपने पास बहुत दिनों से वापस बुला रहा हो और अगर फिर मसूरी वापस लौटने का ख्याल वह दिल से बिल्कुल खत्म कर देती है तो सदियों पुराने इस शहर में अपनी रोजी रोटी भी वह पाने में कामयाब हो जाएगी। बनारस में रानू का कभी अपना घर हुआ करता था और उसने कबीर चौरा के सरकारी हाई स्कूल से बारहवीं की परीक्षा पास करने के बाद मसूरी के हिल स्प्रिंग होटल में रिशेप्सनिस्ट की नौकरी को ज्वाइन कर लिया था। उसके पिता उन दिनों उसकी मां की मृत्यु के बाद ज्यादातर बीमार रहते थे और कुछ दिनों के बाद जब उनकी मौत का समाचार रानू को मिला था तो उसकी आंखों से बहते आंसुओं को पोंछने वाले लोगों में होटल मैनेजर सुमित के अलावा वहां और कोई नहीं था।
अगले दिन वह बनारस लौट आयी थी और श्राद्ध खत्म होने के बाद फिर मसूरी आ गयी थी। रानू के भाई ने बनारस में इसके बाद अपना घर बेच लिया था और वह मिर्जापुर में रेडीमेड कपड़ों की एक दुकान चलाने लगा था। इस दरम्यान रानू से उसने कोई खास मतलब नहीं रखा था और शायद इसी वजह से आज मसूरी से बनारस लौटते हुए रानू को अपने भाई के अलावा सबकी याद आ रही थी। मिर्ज़ापुर में उसके भाई ने विवाह भी कर लिया था और वह उसमें शरीक भी हुई थी लेकिन विवाह के बाद रानू के भाई ने उसे साफ - साफ कहा था कि मसूरी की अपनी अब तक की कमाई वह उसे सौंप देती है तो वह उसके विवाह के बारे में सोच सकता है। रानू को अपने भाई की यह सब सारी बातें जिंदगी की सबसे जटिल बहस की तरह लगी थीं और इसके बाद वह चुप हो गयी थी, उसने भाई से पिता के घर की बिक्री में मिले रुपये पैसों के बारे में भी कुछ नहीं पूछा था और एक खामोशी में वह मसूरी लौट आयी थी। मसूरी से बनारस लौटने के बाद वह सुमित की जान पहचान के किसी होटल में ही ठहर गयी थी और उसे यहां आकर ऐसा लगा कि वह पुरानी जान पहचान के इस शहर में जरूर कोई नौकरी ढूंढने में कामयाब हो जाएगी। दरअसल रानू को मसूरी के होटल के नये मालिक ने नौकरी से निकाल दिया था और रानू को शहर में अकेला और कमजोर पाकर वह उससे अनपेक्षित रिश्तों की आशा करने लगा था और इन परिस्थितियों में रानू के पास इस नौकरी से अलग होने के अलावा दूसरा कोई चारा नहीं था। रानू अब जिंदगी की कई बातों को भूल जाना चाहती है और कुछ इसमें सपनों का कुछ ऐसा रंग भरना चाहती है जिसमें उसके मन के सारे धुंधले रंग बारिश की तरह से समा जाएं और वह फिर किसी नये मौसम के स्वागत में कोई गीत गा सके।
बनारस में सबको अपना कह सके और यहां कोई घर ऐसा हो जिसे अपना कह सके। उसने अपने पुराने घर के पास ही एक छोटा सा घर किराए पर लेकर क्रेश खोलने का फैसला किया था और होटल रिशेप्सनिस्ट के धंधे से वह अलग हो गयी थी।
शहर में इतने सालों के बाद रानू को वापस लौटा देखकर उसके इस पुराने मुहल्ले के लोग भावुक हो जाते थे और लेकिन इन सबके बावजूद उसकी सहजता को देखकर सबको सहारा मिलता था मानो कोई आदमी उन्हें दूर से कहता हो इस दुनिया में कोई आदमी अजनबी नहीं है और केवल वही आदमी सही है जिसके भीतर अब भी ऐसी समझदारी बची हुई है।