कहानी
सात जन्मों के रिश्ते!
/// जगत दर्शन साहित्य
✍️राजीव कुमार झा
सात जन्मों के रिश्ते!
सावन के मेले में उसने पहली बार गंगा को बहते हुए देखा और पूर्णिमा के दिन मेले में आये लोग मंदिर में जाने से पहले काफी उत्साह से इस नदी में स्नान कर रहे थे । गंगा के बारे में और धरती पर उसके अवतरण की कथा को याद करते वह एक पुलक से भर जाती है । बारिश के इस मौसम में तमाम नदियां जल से भर जाती हैं और सावन में गंगा के मटमैले जल में नहाते और उसके पानी में खड़े होकर प्रातवेला में सूर्य को अपनी अंजलि से जल अर्पित करते लोगों को देखकर उसका मन श्रद्धा से भर उठा था और आकाश आज साफ था और धूप में धरती नदी के किनारे असंख्य लोगों को मौजूद देखकर संध्या को सचमुच मां के हृदय के समान प्रेम और आनंद से विह्वल प्रतीत हो रही थी और उसे ऐसा लग रहा था कि आज इस पावन वेला में प्रभात भी अगर यहां इस समागम में उपस्थित होता तो कितना अच्छा होता । सुबह का सूरज उसे मानो जिंदगी के बीते उन लम्हों की याद दिला रहा था जो स्मृतियों के आईने में अमिट प्रतीत हो रहे थे। धूप धीरे - धीरे तेज होती जा रही थी और गंगा के घाट पर स्नान ध्यान करने वालों की तादाद भी बढ़ती चली जा रही थी।
प्रभात के बारे में सोचते हुए अक्सर उसका मन स्फटिक सा निर्मल दीप्त हो जाता है और उसे लगता है वह अब जहां भी होगा उसके जीवन की आभा स्मृतियों के नानाविध रंगों से उसके हृदय को अभिभूत करती रहेगी। दिल्ली से लौटने के बाद उसे पता चला कि वह भी इस शहर से कहीं अन्यत्र चला गया है और फिर उससे उसका कोई संपर्क कायम नहीं हो पाया। उसने उसके बारे में सोचना बंद कर दिया था। प्रभात एक टेलीविजन चैनल में कैमरा मैन का काम करता था और दिल्ली में किसी दिन सुमति के घर पर उसकी मुलाकात उससे हुई थी। उन दिनों सुमति से उसके गहरे रिश्ते थे लेकिन प्रभात से जिस तरह से उसके रिश्ते प्रगाढ़ होते गए वह धीरे-धीरे उसी अनुरूप दूर होता चला गया। संध्या की अभिरुचि इस तरह के धर्म कर्म में ज्यादा नहीं थी लेकिन अध्यात्म उसके जीवन की अनुभूतियों में सदैव रचा बसा रहा है और आज दिल्ली से गांव लौटने के बाद मां के साथ वह सावन पूर्णिमा के मेले में वह आयी थी । सुबह होने से पहले ही जब रोशनी ठीक से नहीं फैली थी, तभी वह घर से नहा धोकर निकली थी और नदी के किनारे आकर घाट पर खड़ी होकर गंगा की बहती हुई धारा को अपलक निहार रही थी और तभी उसे प्रभात की याद आयी।
सावन के बाद भादों में जन्माष्टमी के त्योहार का आना और उसे आनंदपूर्ण ढंग से मनाना भी उसे बाल्यावस्था से प्रिय रहा है। प्रभात संध्या के जीवन में अचानक जिस तरह से आया था, एक दिन वह उसी तरह से सदा के लिए बिछुड़ गया था लेकिन वह उसे बिल्कुल भी नहीं भूल पाती है। महानगर में औपचारिक रूप से कायम होने वाले रिश्तों में एक रिश्ता यहां के युवा वर्ग के स्त्री - पुरुषों में निरंतर बनते और टूटते रहने वाले रिश्ते हैं और इनकी सच्चाई के बारे में कुछ भी नहीं कहा जा सकता है। संध्या रास्ते में लौटते हुए इसके बारे में ही सोच रही थी और उसे लग रहा था कि सात जन्म के रिश्तों के बारे में सोचना कठिन है लेकिन यह नामुमकिन नहीं है।