चक्रव्यूह सा जीवन!
  /// जगत दर्शन साहित्य  
काव्य जगत
चक्रव्यूह सा जीवन!
अभी भी बाकी बचा हैं, 
कुछ सफर हमारे जीवन का,
अपने भीतर हम रच ले,
नव उमंग उत्सव के,
अधूरी कामनाओं के लिए।
इक विशाल आसमां खींच ले, 
अब तलक जागे हुए हैं, 
कुछ अधूरे से ख्वाब, 
साकार उन्हें हम कर ले,
बस यूँही चलते चलें, 
नये नये काम करते रहे।
मुड़- मुड़ कर क्या देखे? 
जो छूट गया भूलते चले,
धुंधला सा अतीत जीवन ना था,
वह एक भयावह ख्वाब था,
निरर्थक साँसो का सफर था,
झूठ फरेब भुलावों का,
भ्रमजाल ही था। 
बमुश्किल चक्रव्यूह के घेरो से,
बाहर आ गए, 
अब सुलझाए उलझनों के,
इक इक धागों को,
प्यार मुहब्बत के मोती पिरोकर,
फिर नयी सुन्दर माला बनाए,
बच गए पलो को,
बेहतर से बेहतर बनाए।
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