💐. चलों बसंत के संग बासंती होले.
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आज बसंतोत्सव कहलो,मदनोत्सव या वैनेन्टाइन..
एक ही स्वरूप है ! बसंत का मौसम होता ही एैसा
है,प्रकृति चारों ओर खिलखिलाती नज़र आती है
.प्रकृति का कण कण कुछ कहता है, कवियों की..
लेखनी अपने आप चल पड़ती है..कदम थिरकते है, मनमयुर नाचका है, ओठों से गीत निकलने को
मचलते हैं, भावनाएं उमढ़ती हैं,शायद इसीलिये.ही
निःशब्द प्रकृति को माँ सरस्वती नेअवतरित होकर
वाणी प्रदान की!,,,,,बसंत में नभ धरती बासंती
नज़र आते है....कहीं कोयल की कुहूंक कही..पर
रंगीन तितलियां उढ़ती तो कहीं मंडराते भ्रमर....
वाह महकती धरा मदमस्त .कर देती है..मन तो
बांवरा सा किसी के आने की आहट सुनने को ही
बेकरार रहता है..बासंती तरन्नुम सुनाई देता है..
वृक्षो के पत्तों की सरसराहट मे भी संगीत सुनाई
देता है...महुंए की मादक हिलौरे तन मन को भी
बहकाती नजर आती.है. .नयन ही नयन.की भाषा
समझते हैं..है भी रति कामदेव का मौसम तो भला
कैसे कोई बासंती नशे से मुक्त.रहे..और सभी इस बसंत के साथ बासंती होने को मजबूर हो जाते हैं. और बसंत को आज "वेल्न्टाईन डे",,का रुप
दे मना रहै है...मूल तो "बसंत",ही है..."गुलाब " को
प्रतीक मान लिया है..प्रेम इजहार करने का .....तो
"गुलाब",,,एक नाजुक सा खूबसूरत फूल है जिसे
देख कोई भी खुश होता है. गु+गुलनार...ला+
लबालब....ब+ बहकना....मतलब कहने का यही है कि गुलाब एैसा फूल है जिसे.देख...गुलनार हो
जाते है .प्रेम से.लबालब भर जाते हैं..और उसकी
खुसबू बहका देती.है..मानो प्रेमी अपनी प्रेमिका
को गुलाब देते.हुए.कह.रहा.है......*
.यह गुलाब..
मेरा प्रेम प्रतीक..
अपनाओं भी..
मेरी तपस्या..
गुलाब सी कोमल.
खंडित ना हो..
मेरी पूज़ा ये..
विफल ना हो प्रिय..
स्वीकार करो..
भावों की निधी..
मेरा सवँस्व तुम्हीं .
कहाँ जाऊं मै..
ह़्दय तंत्री हो..
मधुर गीत गाऊं..
बैठ सामने..
युगो भटका..
खोना नहीं तुमको.
आज एक हों..
रचना : रति चौबे (नागपुर,महाराष्ट्र)