इस कविता की रचना एक बेहद ही उत्तेजक मुद्दे पर है। रचना एक शिक्षिका की है। किन्नर जो एक विवादित इंसान के रूप में समाज मे विद्यमान रहते है । पर उनकी अंतर्रात्मा क्या सोचती है ! क्या उनका सपना होता है! क्या उनका हश्र होता है समाज मे ! आखिर है तो वो भी इंसान । आखिर क्यों समाज उनको घर से बाहर का रास्ता दिखाता है? हमारी क्या जिम्मेदारी होनी चाहिए? इन्ही सब मुद्दों पर बहुत ही अंदर से झांकने की कोशिश की है सुनीता सिंह जी। पेशे से शिक्षिका है। उत्तर प्रदेश के देवरिया में जीवन मार्ग सोफिया सेकेंडरी स्कूल में पदस्थापित है। इनकी लेखनी एक पल के लिए हमे पर्दे से ढके मोती को बाहर करने की कोशिश करती है। आएं हम सभी इनकी शब्दो का रसपान करें।
किन्नर
किन्नर हूँ मैं,
श्रापित है यह जीवन मेरा,
अपनों ने ही त्याग दिया जब हमको,
मान की आस करें क्या गैरों से,
अंग भंग नहीं है मेरा,
लिंग त्रुटि क्या दोष मां मेरा,
फिर काहे तू रूठी मइया,
तनिक मोह न आया तुझको,
फेंक दिया हमें दलदल में
क्या ममता तेरी झूठी है,
अपने ही तन से हम घिन करते हैं,
मन से भी पल पल लड़ते हैं,
नहीं मेरा घर बार कोई ,
नहीं कोई संगी साथी है,
निश दिन स्वांग रचाने में
बस ये ताली साथ निभाती है,
तुम जैसे ही हैं सपने मेरे,
मेरा भी मन करता है घर अपना बसाऊँ,
लाल चूनर, नथनी ,मेंहदी ,कुमकुम से ,
मैं भी मांग सजाऊँ,
नहीं मैं सधवा,नहीं मैं विधवा,
फिर भी शुभ कहलाऊँ,
तन अधूरा,मन अधूरा,कुछ भी नहीं मुझमें पूरा,
ये ताली लगती गाली है,
फिर भी इससे जलता मेरा चूल्हा,
श्रापित है यह जीवन मेरा,
दुखद अधिक मर जाना है,
चप्पल,जूते मार-मार के मेरी लाश घसीटी जाती है।
किन्नर हूँ मैं
श्रापित है यह जीवन मेरा,
■ सुनीता सिंह सरोवर
संपादन : प्रिया पांडेय 'रौशनी'