ईश्वर का स्वरूप.....
✍️ बिजेंद्र कुमार तिवारी (बिजेंदर बाबू)
सनातन संस्कृति एक ऐसा खूबसूरत बाग है, जिसमे सभी पंथ के फूल अपनी-अपनी रचना और कर्मानुसार श्री हरि के श्री चरणों में अपना भाव समर्पित करते हैं। सृष्टि के सभी जीव अपनी-अपनी समझ से उस सृष्टिकर्ता श्री हरि का ध्यान और स्मरण करते हैं।
निराकार-साकार सभी रूपों में श्री हरि सत् भाव से समाहित हैं। किसी ने श्री हरि के निराकार रूप को परिभाषित करते हुए कहा:-
बिनु पग चलै, सुनै बिनु काना
कर बिनु कर्म करै विधि नाना।।
आनन रहित सकल रस भोगी।
बिनु वाणी वक्ता बड़ योगी।।
यानी ईश्वर निराकार है। बिना कान नहीं किन्तु सुनता है। पाँव नहीं किन्तु उलता है। हाथ नहीं परन्तु अनेक विधि से सब कर्मों को करता है। जीभ नहीं किन्तु सब रसों का स्वाद लेता है। मुख नहीं लेकिन सबसे बड़ा वक्ता है। यानी ईश्वर का कोई रुप नहीं, वह निराकार है।
तो किसी ने कहा हममें तुम में खड़ग खम्भ में, घट-घट व्यापे राम।।
भक्ति धारा का एक पक्ष ईश्वर निराकार मानते हुए निर्गुण ब्रह्म के सुमिरन पर बल दिया। तो दूसरा पक्ष श्री हरि के सगुण रूप को अपना भाव अर्पित करते हुए राम कृष्ण सहित कई सगुण रूपों का वर्णन किया। वास्तव में दोनों पक्ष अपने-अपने तर्क के अनुसार सही हैं। कबीर के अनुसार, 'नदिया एक घाट बहुतेरे, कहे कबीर समझ के फेरे....' ईश्वर के सगुण और निर्गुण रुप को समझने के लिए हमें पानी को समझना चाहिए। पानी का वाष्प निर्गुण, बर्फ और जल सगुण। उसी तरह से ईश्वर निर्गुण और सगुण सभी रुपों में है।
वह मंदिर की आरती में झूमता है, तो मस्जिद के आज़ान में भी गूँजता है। गुरुद्वारा के अरदास और चर्च में प्रेयर (होली कम्युनियन) में भी वो रमता है। इसलिए भेद करने का कोई मतलब नहीं।
मेरे हिसाब से:- राम सिया सबमें बसे, जो लेता यह मान।
उस मानव के सामने, हिन्दू तुरुक समान।।
यानी भेद इंसान की सोच में है। ईश्वर में नहीं। वह तो साकार होते हुए भी निराकार है, और निराकार होते हुए भी साकार है। वह मंदिर मस्जिद गुरुद्वारा चर्च सब जगह समान रूप से विराजमान है:-
मंदिर मस्जिद गुरुद्वारा, सब ईश्वर के धाम।
सबमें बसते शिव यहाँ, सबमें बसते राम।।
घट घट वासी हैं प्रभु, सब हैं घट का रूप।
सबमें बसती एक है, उनकी छवि अनूप।।
मस्जिद गुरुद्वारा नहीं, कैसे उनका धाम।
सबमें उनका रूप है, सबमें उनका नाम।।
सुन बिजेन्द्र अब बावरे, ईश में ना कछु भेद।
जो समझे इस मरम को, वो नर रहे अभेद।।
उसमें कोई भेद नहीं। वो सृजनकर्ता ब्रह्मा, पालनकर्ता विष्णु तो कहीं सृष्टि के कल्याणार्थ संहारक शिव है। वो प्रकृति में निराकार रूप में वायु सहित उन सभी चीजों में है जिन्हें हम सुन या महसूस कर सकते हैं, तो साकार रूप में उन सकल चराचर जीवों में समाहित है, जिसे हम देख सकते हैं।
सामान्य तौर पर हमें प्रकृति के सभी रुपों को ईश्वर का स्वरूप मानते हुए उसे स्वच्छ निर्मल और पावन बनाते हुए। सत्कर्म में लीन रहना चाहिए।


