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आखरी सत्य
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✍️संजय जैन "बीना" मुंबई
बहुत दिनों से मेरी
फड़क रही थी आँखे।
कोई शुभ संदेश अब
शायद मिलने वाला है।
फिर एकका एक तुम्हें
आज यहाँ पर देखकर।
दिल अचंभित हो उठा
तुम्हें सामने देखकर।।
बहुतों को रुलाया हैं
जवानी के दिनों में।
कुछ तो अभी जिंदा है
तेरे नाम को जपकर।
भले ही लटक गये हो
पैर कब्र में जाने को।
पर उम्मीदें जिंदा रखे है
आज भी अपने दिलमें।।
यहाँ पर सबको आना है
एक दिन जलने गढ़ने को।
कितने तो पहले ही यहाँ
आकर जल गढ़ चुके है।
तो तुम कैसे बच पाओगें
जीवन के अंतिम सत्य से।
यही मिला है सबको यारो
समानता का अधिकार।।
यहाँ जलते गड़ते रहते है
सुंदर मानव शरीर के ढाचे।
जिस पर घमंड करते थे
और इतराया करते थे।
पर अब जीवन का तुम्हें
सत्य समझ आ गया।
इसलिए अंत में आ गये
चाहने वालों के बीच में।।
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