परिचर्चा
घिनौना कृत्य बलात्कार!
देश की ज्वलंत समस्या/ यह कैसी विडम्बना?
///जगत दर्शन न्यूज
नागपुर (महाराष्ट्र): हिंदी महिला समिति* में एक परिचर्चा में उन सभी यौन पीड़िताओं को शब्दों के माध्यम से की पुष्पांजलि अर्पित। इस दौरान सबने इस घृणित कृत्य पर बेहतरीन परिचर्चा किया। प्रस्तुत है, उनमें से कुछ प्रमुख अंश..
यह कैसी विडिम्बना है? आखिर क्यूं कब तक?
रतिचौबै
सड़कों पे रैलियां पहले भी यूंही निकली थी। मोमबत्तीयां पिघली थी। यौनपीड़ित बालाओं की रोती आत्मा मंडराते देख रही थी। वेदनायें सिसक रही बिलख रही थी। अपने वीभत्स रूप को देख कर। पर तमाशबीन और वे बलात्कारी चौराहों पे खड़े हुये किसी मासूम की तलाश में खड़े थे। माताओं की आंखे नम थी, तो बहनें चीख रही थी पिता--- भाई आक्रोशित थे---आज भी वही नजारा है--क्या भूल गये तुम निर्भया कांड, तंदूर कांड, अरुणा कांड, कांड पे कांड होते रहे। कानून में भी संशोधन होते रहे। दरिंदे स्वच्छंद घूमते रहे। यौन अपराध स्कूलों, कालेजों, अस्पतालों, में मंदिरों, मंत्रियों के निवास स्थान। यहां तक की कई घरों में भी-- होते रहे तीन.महिने की बच्ची से लेकर 80 साल की वृद्घा को भी नरपिशाचों ने भी ना छोड़ा। गाजर-घास की तरह ये दानव पनपते जा रहे हैं। नारे, प्रदर्शन भी जमकर हो रहे हैं, पर यह बेलगाम बढ़ते ही जा रहे हैं। क्यूं? शैक्षिक स्तर आसमान छू रहे हैं। पर दरिंदों की सोच रसातल में जड़ पकड़ रही ,पीढ़ियां आई और चली गई। बौद्धिकता पर पाला पड़ गया है। मुहिम चली मुखौटे वही है। नारी कीमत तो गिरती ही गई। हर घंटे पूरे देश में हजारों की संख्या में रौंधी जाती है। आंदोलन, आक्रोश के ऊबाल भी दर्शाये जाते हैं। नवरात्रियों में मंदिरों मे नारी को देवी रुपों में पूजते हैं और उसी नारी को चौराहौ पर नग्न करते नराधमी। यह कैसी विडम्बना? सरे आम ऐसे नराधमियों के लिये
नारी जब चंडी बनकर इन महिषासुरों का अंत करेंगी और नपुंसक शासन में कोई जब कृष्ण आवेगे तभी धरा से चीरहरण खत्म होगा और हर द्रौपदी सुरक्षित होगी। हर गली गली में घूमते दुर्योधनौं से
तभी रक्षा होगी। आ जाओ अब हे कृष्ण धरा पे लेकर तुम अपना सुदर्शन अब तो नही। सुरक्षित धरा पे गायें हरिणी नारी "औरत"। भले वो पत्नी ही क्यों न हो उसकी मर्जी और इच्छा के विरुद्ध शारीरिक संबंधों के लिए की गई ज़ोर जबरदस्ती और बनाएं गए यौन संबंध बलात्कार है। विकृत और घिनौनी मानसिकता वाले लोग ही ऐसे कृत्य को अंजाम देते है। शब्द ही नही मिलते मुझे तो ऐसे लोगों की मानसिकता को बयां करने के लिए जिस योनि की "कामाख्या धाम" में पूजा की जाती है जिससे सृष्टि सृजन होकर ऐसे अपराधी स्वयं इसी रास्ते जन्म लेते है फिर कैसे ऐसे कर गुजरते है?
गीतू शर्मा
आए दिन अखबारों में खबरों में ऐसी हृदयविदारक घटनाओं का ज़िक्र मिलता है, जिसे पढ़कर सुनकर रूह कांप जाती है तो पीड़िता और उनके परिवार पर क्या ही बीतती होगी? कल्पना करना भी मुश्किल है, बलात्कार जैसी घटना को अंजाम देनेवाले लोगों की तुलना पशुओं से करना भी उनका अपमान है, क्योंकि कोई भी पशु इस तरह की घटिया हरकत नही करते ऐसे लोग पशुओं से भी बद्तर है, इंसान कहलाने के लायक ही नही।
मोमबत्तियां लेकर धरने, आंदोलन और हड़तालें करने से कुछ नही बदलने वाला, कानून और संविधान में त्वरित संशोधन की जरूरत है और अब नही तो कब, आखिर कब तक बहन, बेटियां शिकार होती रहेंगी और क्यों? कानून व्यवस्था की शिथिलता और प्रशासन की लचर कार्यवाही जिम्मेदार है। हर उस नई ऐसी घटना के लिए जो की पिछले घटना से सबक लेकर समय पर उचित कदम नहीं उठाते, सुरक्षा के कितने ही पुख्ता इंतजाम हो जब तक ऐसे अपराधियों के खिलाफ़ ठोस दंडात्मक कार्रवाई कर कड़ी से कड़ी सज़ा का प्रावधान नही होगा ऐसी घटनाएं होती ही रहेंगी। विषय अत्यंत संवेदनशील और चिंतनीय है लिखने को बहुत कुछ है पर लेखनी भी नम हो गई आंखों के साथ तो बस इतना ही।
रेखा पांडेय
बलात्कार एक ऐसा अमानवीय कृत्य है कि जिसकी वजह से पीड़ित महिला का तन के साथ साथ मन भी आहत होता है। बलात्कार शब्द सुनते ही मन उस इंसान के प्रति घृणा और नफरत से भर जाता है। मुझे लगता है कि हमें अपनी बेटियो को आत्मनिर्भर बनाना चाहिए और उनके साथ साथ हमें भी अपने आपको आत्मनिर्भर बनाना होगा। यदि हमें कहीं हम या हमारी बेटियों के साथ किसी ने छेड़छाड़ की तो हमें खुद ही सामना करना होगा साथ ही हमारी छोटी छोटी बेटियों को भी इन सबकी जानकारी देना होगा। उन्हैं किसी के स्पर्श से अच्छा टच और बुरा टच समझाना होगा। इसके लिए हमें बच्चों के लिए अलग अलग वर्कशाप के जरिए समझाना होगा। इसके लिए हम महिलाओं को आगे आकर बेटियों की सुरक्षा करनी होगी।
कविता परिहार ने कहा--
घिनौना शब्द सुनते ही मन घृणा -आक्रोश से भर जाता है। इंसान इतना कैसे गिर सकता है। समझ से परे है। आप आये दिन ये घटनाक्रम बढ़ते ही जा रही है? छोटी सी बच्ची, हो युवती हो, या वृद्धा ,इनको इस से कोई मतलब नही, डॉ निर्भया, डाँ मोमिता जैसी बच्चियो के लिए आवाज उठाई जाती है। न्याय के लिए संघर्ष, धरना-प्रदर्शन, कैंडल जुलूस, निकाले जाते है, परंतु हजारो बच्चियो के साथ ये कुकृत्य आए दिन होते रहते है उनका क्या? क्या कारण है जो ये घटनाए सुरसा की तरह, महामारी की तरह फैल रही है, जिस पर अंकुश लगाने मे सरकार भी नाकामयाब है। क्यो ऐसे शक्त कानून नही बनाए जाते कि ऐसे पंगु मानसिकता पर अंकुश लगाया जा सके। कभी- कभी तो लगता है, मिलीभगत सरकार है। वरना नकेल कसना इतना भी कठिन काम नही है।
गार्गी जोशी
आज का विषय एक बहुत ही ज्वलंत समस्या को लेकर है। यह “बलात्कार” शब्द ही मानो नारी की अस्मिता को तार तार कर देता है। फिर जो इस यंत्रणा से गुजरती होगी उसकी पीड़ा और मानसिक संताप के विषय में कौन जान सकता है। दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही अपराध संख्या केवल आंकड़ो तक ही सीमित रह जाती है और एक भुक्तभोगी नारी उम्रभर प्रतिदिन उस एक क्षण से गुजरती रहती है। इन बढ़ती हुई घटनाओं के लिए कौन जिम्मेदार है ? कहीं न कहीं हमारा सामाजिक ढांचा भी जिम्मेदार हैं, क्योंकि हम सारी शिक्षा और नियम बेटियों को सिखाते हैं। अगर बेटों को भी नारी का आदर, उसे माँ, बहन, बेटी के रूप में देखने की सीख दी होती तो किसी पुरुष में नारी को देख उसके सम्मान पर हाथ डालने का विचार नहीं आ सकता।
दूसरा जिम्मेदार है इंटरनेट। क्योंकि इसने बच्चों का बचपन छीन कर उन्हें समय से पहले जवान बना दिया है। उन्हें जीवन के सारे अनुभव समय से पहले ही लेने होते हैं जिस कारण ऐसी घटनायें होती हैं। आज खुलेआम ऐसी पिक्चर और वेब सीरीज देखी जा रही हैं जिनमें उन्मुक्त यौनाचार, विवाहेतर संबंध, ड्रग्स आदि के दृश्य भरपूर हैं। ये सारी चीजे दिमाग को एक दूषित मानसिकता देने के लिए पर्याप्त हैं। आखिर इस तरह की घटनाएँ इंटरनेट के आने के बाद से ही बढ़ी हैं वरना पहले कभी कहीं कोई घटना घटती थी। आज स्त्री पुरुष के समान होने की बात पर बहुत जोर दिया जाता है। ये सच है कि बुद्धि में दोनों ही समान हैं लेकिन ये भी प्रकृति का अटल सत्य है कि शारीरिक रूप से स्त्री पुरुष की अपेक्षा कमजोर है। स्त्री शरीर इतना आकर्षक है कि उसका मोहक रूप जितना झलकेगा उतना ही सामने वाले को निमंत्रण देगा। आज आधुनिकता का नारा बुलंद करते हुए लड़कियाँ पहनने की आजादी पर जोर देती हैं पहनने की आजादी का मतलब है कि आप जिस तरह का भी परिधान पहनो पर वो शालीन होना चाहिए। ये नहीं की आप अर्धनग्न होकर घूमें और बाद में ये दोष दें कि सामने वाले की नीयत सही नहीं, पहनावे का खुला और अमर्यादित होना भी पुरुषों को उत्तेजित करने का कार्य करता है।
मुझे लगता है कि स्कूलों में भी इस विषय से संबंधित शिक्षा दी जानी चाहिए और परिवार में भी ,क्योंकि एक स्त्री कहीं सुरक्षित नहीं है। अधिकतर रिश्तों की आड़ में निकट संबंधी ही उसके साथ जघन्य कृत्य कर देते हैं और माँ को बताने पर माँ ही बेटी को ये कहकर चुप करा देती है। किसी से मत कहना। हमें परिवार में सुरक्षा पहले देनी है समाज भी तो परिवारों से मिलकर ही बनता है।
ममता विश्वकर्मा
बलात्कार एक ऐसा घिनौना और अमानवीय कृत्य है कि तन के साथ साथ मानसिक रूप से भी तोड़ कर रख देता है। पीड़िता को समाज, रिश्तेदार, पड़ोसी ऐसी नजरों से देखते है कि जैसे उसी से कोई भारी अपराध हो गया है। आज राजनीति का अपराधीकरण हो गया है। साथ ही कानून व्यवस्था भी लचर है। निर्भया वाले मामले को ही ले अपराधी पकड़े गए थे, लेकिन उन्हें सजा 18 साल मिली। लोगों के मन में डर होना चाहिए। कानून का त्वरित सजा का प्रावधान होना चाहिए। पकड़े जाय तो तुरंत दंड दे।साथ ही राजनेता जो अपराधी को शरण दे उनके विरुद्ध भी कार्यवाही होनी चाहिए। क्योंकि पार्टी का वरदहस्त उन पर रहता है। तो अपराधी खुल कर अपराध करते हैं,क्योंकि वे जानते है कि हमारी पार्टी के आका हमे बचा लेगे। आज हम अपनी बेटियों को इन भेड़ियों से बचने के लिए जागरूक तो करते ही हैं पर जरूरत है कानून व्यवस्था में सुधार की। यदि अपराधी के अपराध की पुष्टि हो जाती है तो उसे तुरंत मृत्यु दण्ड दिया जाना चाहिए। क्योंकि जब मन में डर रहेगा कि पकड़े गए तो फांसी होगी।तो शायद वो अपराध करने से डरेगा। साथ ही अपराधी को शरण देने वाले नेताओं पर भी कठोर कानूनी कार्यवाही होनी चाहिए।
अपराजिता राजोरिया
सुबह सुबह घर से मां के हाथों का बना मन पसन्द सूजी का हलवा। मां ने बडे प्यार सै अपने हाथों खिलाकर यर चुम्मी देकर और पापा ने गले लगा कर अपनी प्यारी सी डाक्टर बिटिया को पाकिॅग तक छोडा तो भी पल्ले से हाथ पोछती बिटिया को बिदा या अन्तिम बिदा देने आई मां को ममता खीच लाई। डाक्टर मरीजों की सेवा करती। कुछ ना इलाज करा सकने वाले मरीजों की आथिॅक मदद भी करती। अभी बस कुछ ही दिन हुऐ थे नई जगह पोस्टिंग हुऐ। पर इतना जल्दी ही सबका मन जीता था। उसने काम अधिक था और जरूरी सो मां से घर ना आने की बात कही। मां नाराज़ हुई उस पर क्योकी उसके पसन्द की नान और कश्मीरी पनीर जो बनाया था। देर रात तक
काम किया फिर थक कर। आराम करने की खातिर वेटिंग रूम में जाती है। बस कुछ ही देर में ना जाने कहां से वो दरिया आया। सोती हुई उस अबला पर अपना कुकुमॅॅ कर शैतानी पंजा फैलाया। सोते सोते ही उस नन्ही को गाजर -मूली सा काट कर मौत के घाट उतारा। एक बार भी उस दरिन्दे को अपन। बेटी,मां, बहन, या भाभी याद न आई, जो इतनी नन्ही सी जान को दुख में तडपता देख मौत ना आई। एक और निॅभया फिर दरिन्दे का शिकार हो गई। डोली में जाने के अरमान दिल में दफन हुऐ दुल्हन के जोडे की जगह कफन लिऐ मां -पापा की लाडली बिटिया दुनिया से माः पापा के अन्तिम प्यार लेकर बिदा हुई।
रीना मुखर्जी
इस विषय पर पिछले पंद्रह दिनों से पूरी दुनिया में हाहाकार मचा हुआ है। दरिंदगी ने अपनी सारी हदें पार कर दी हैं। रोंगटे खड़े हो जाते हैं। सिस्टम की गड़बड़ियां सेक्स रैकेट मानव तस्करी का नँगा नाच जो इस अस्पताल में चल रहा है। वह असहनीय है। कोई भी साधारण व्यक्ति के लिए यह कल्पना के परे है। कोलकाता जैसे मेट्रो सिटी की हालत यदि ऐसी है तो देश के अन्य छोटे बड़े अस्पताल की क्या हालत होगी और देश भर में इसकी चर्चा हो रही है। लेकिन मुझे कुछ और कहना है। किसी कवि ने कहा है कि अब उठो द्रोपदी शस्त्र उठाओ गोविंद अब ना आयेंगे क्या मायने है। इन पंक्तियों की शस्त्र क्या हमे चाकू छुरी बंदूक ले कर चलना है ? ? क्या करना चाहिए आज की नारी को? मेरे हिसाब से सबसे पहले महिलाओ को लड़कियों को मर्यादा में रहना चाहिये जब उनसे कहा जाता है कि रात के वक़्त घर से मत निकलो तो मत निकालो। परिधान में शालीनता रखो तो रखो और दुनिया घर के बाहर की दुनिया बहुत बेरहम है। सगा भाई और पिता के सिवा कोई भी अपना नहीं है और ये सब शिक्षा उसे घर में खास कर माँ को देना चाहिए लेकिन आजकल की माँ भी तो भ्रमित हैं। नारी मुक्ति नारी की आज़ादी के नाम पर खुद ही गलत आचरण करती हैं गलत शिक्षा देती हैं घर के बुजुर्गो अगर कुछ कहे तो उनका मजाक उड़ती है। मैं हिंगना के तरफ रहती हूं। एक दिन हम रेस्ट्रो में गए थे और जाहिर है कि रात हो गई थी। साढ़े ग्यारह बजे रात में कुछ लड़के और लड़कियो वहाँ आई लड़कियों ने शॉर्ट और टी शर्ट पहन रखा था। खुले बाल फुल मेकअप। मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ मैने पूछा कौन है? ये लोग मेरी बहु ने बड़े ही साधारण भाव से कहा ये सब कॉलेज के बच्चे हैं और हॉस्टल में रहती हैं और उनका इस तरह देर रात तक घूमना साधारण बात है। क्या वहाँ किसी प्रकार की दुर्घटना की आशंका नहीं होती और अगर हो गई तो फिर जलआते रहे कैंडल और समाज को दोषी बनते रहो। अपराध व अपराधियों को रोकना बहुत मुश्किल हैं जैसा कि हम देख रहे है मुख्य मंत्री से ले कर अधिकारी सभी इस कृत्य में शामिल है इनसे पंगा लेना याने खुद की बर्बादी है जो कि डॉके साथ हुआ है अब कब जाँच होगी कब न्याय मिलेगा कौन जनता है। एक कहावत है prevention is better than cure। खुद सावधान रहे अपनी रक्षा स्वयम करे क्योकि गोविंद अब ना आयेंगे।
निशा चतुर्वेदी
नर नारी द्वारा सृष्टि की रचना सृष्टि की निरंतरता को इन नर पिशाचों ने कितना भयंकर, कुत्सित, वीभत्स रूप दे डाला है। हर थोड़े-थोड़े अंतराल के बाद इन दानवों द्वारा की हुई कुत्सित घटनाओं से नारी जाति आहत होती रहती है हृदय चीत्कार उठता है। यह विवशता कब तक हम सहते रहेंगे कैसे इन नर पिशाचों की मानसिकता को बदला जाय। मैंने बहुत पहले कुछ पंक्तियां लिखी थीं -मूर्ती बनाना जान फूंकना केवल नहीं हमारा काम। इन मूर्तियों में करना होगा चरित्र निर्माण। केवल डिग्री लेने से कार्य चलने वाला नहीं है। घर से चरित्र निर्माण की शिक्षा की शुरुआत करते हुए शैक्षणिक स्तर तक लागू करनी चाहिए। शिक्षा को अंकों से जोड़ें तथा फेल होने पर अयोग्य घोषित करें। एक छोटा सा प्रयास। यह कार्य बच्चों का खेल या मजाक नहीं है। किन्तु इन नर पिशाचों को जो इंशान कहलाने योग्य नहीं हैं उन्हें पागल कुत्ते के समान चौराहे पर डाल कर खत्म कर देना चाहिए। जब जब ऐसी घटनाएं घटित होतीं हैं। मीडिया भी सक्रिय होता है। हड़ताल भी होतीं हैं और फिर ढाक के तीन पात फिर कोई एक इन शिकारी कुत्तों की शिकार बन जाती है। वो दर्द के साथ दुनियां से,जो उसने ठीक से देखी और समझी भी नहीं थी चली जाती है। हमारे हृदय पर उसके कष्ट का एहसास लंबे समय तक चलता रहता है। हम और सरकार अपनी बेटियों को शिक्षा के साथ साथ अपनी सुरक्षा का प्रशिक्षण भी अवश्य दिलायें। घर में तो हम बिठा नहीं सकते जो हमारे वश में हमें समझ आता है उसका प्रयास अवश्य करें।
मंजू पंत
बलात्कार शब्द सुनते ही मेरी रूह कांपने लगती है। जिस देश में नारी के लिए कहा जाता है,,,यत नारयसतु पूज्यंते, रमते तंत्र देवता। चाहे नारी का कोई रूप हो। बेटी/बहन/मां या। पत्नी वह पूजनीय होती है। मेरा सरकार /कानून से यही प्रार्थना है कि समाज के से दरिंदों को सीधे फांसी की सजा दे।जिनको दूसरी स्त्री केवल उपभोग की ही वस्तु नजर आती है क्यों उसमें अपनी मां/बेटी और बहन क्यों नहीं आती है।अब तो हम महिलाओं का जीवन दूभर नजर आ रहा है।
अंत में रति चौबे ने सभी के विचारों को सराहते हुए कहा कि उक्त चित्र कहता है कि जब ईश्वर भी नारी के चरणों को धरती पे नहीं अपने हाथों पे
रख उसका सम्मान करता है तो उसी भारत में उस नारी का ही अस्त्तित्व खतरे में है तो दोषी
कौन-? प्रश्नचिन्ह है...