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लोभी-क्रोधी-ढोंगी मानव खोखा है!
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जिसको जितना हद में मिलता मौका है,
आगे बढ़ता रहता दे कर धोखा है।
दो दिन का है जीवन मेला दुनिया का,
पल में जीना - मरना जैसे झोंका है।
ज्वारों; भाटो सा घटता बढ़ता जीवन,
सागर की लहरों को किसने रोका हैँ।
दरमियाँ दरिया फँसती नैया मानव की,
इंसानो की देखी टूटी नोका है।
मनसीरत मन मंदिर मानवता पूजों,
लोभी , क्रोधी ,ढोंगी मानव खोखा है।
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यादें कोमल ह्रदय को चीरती
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जूतें घिसते घिसते घीस जाएँ,
कांटों से नंगे पैरों को है बचाएँ।
बात बढ़ते- बढ़ते बढ़ जाए तो,
लड़ाई- झगड़े,फ़साद करवाए।
रात काटते-कटते कट जती है,
बे-शक करवटें बदलती जाएँ।
बातें बनती-बनती बन जाती हैँ,
विगड़े -उलझें किस्से सुलझाए।
धरती हिलते-हिलते हिल जाती,
अगर नभ बिजलियाँ है गिराए।
भूमि पल भर मे सागर बनती,
नभ से बादल नीर बरसाए।
यादें कोमल ह्रदय को चीरती,
बंदा तड़फ - तड़फ मर जाए।
मनसीरत सूखा तिनका देखते,
आग लगती-लगती लग जाए।
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