मैं हूँ तितली
मैं हूँ तितली
रही तुम केंद्र कवि की
बरसों से सुंदरता की पर्याय बन के
फिर क्या कमी तुम में आई
कमज़ोरी की बन गई पर्याय?
हो सुंदर चंचल भी हो
सागर से नभ की आज़ादी हो
बाँध ना कोई तुमको पाया
फिर क्यों सकुचाई सी हो?
रंग भरे इन पंखों की
उड़ान बाकी है अभी ऊंचे आसमां की
पर सिमटी अनजाने आहट से
शायद रुक गई किसी की निगाहें।
मनमोहक रंग हैं इसके
चंचलता है अनंत
फिर क्यों न हो आकर्षित
फिर क्यों न हो आनंद।
क्या यही निमित्त मात्र तुलना की
क्षितिज का होना सिद्ध नहीं करता
धरा-अम्बर के मिलन की
फिर भी ऐसा क्यों है?
मैं हूं नारी की सुंदरता
या नारी सुंदर मेरे तुल्य
चपलता की भी तुलना की
बन गई सज्जा बनाव।
हां, मैं वन की तितली हूँ
कोमलता की पर्याय
वो आज़ादी, मुक्ति हूं
फिर भी सदियों से झुकती आई हूँ।
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