आतप
/// जगत दर्शन साहित्य
आतप घन में है
धरा,
जलता जग है जान।
बेचैनी अब बढ़ रही,
मनुज रहे अनजान।
पेड़ धरा पर रो रहे ,
मनुज करे अभिमान ।
आतप से जलती घरा ,
मानव अब तो जान।
आतप मन होता तभी,
अपना जाता दूर।
मन कानन झुलसा करे।
करे न कोई पूर।
मांँ की ममता है कहांँ,
आतप मन है आज।
याद हमेशा है गिरह,
देती वह आवाज।
प्रिय
कहीं जो बिछड़ गए,
झुलसे आतप अंग।
दिल उपवन पतझड़
सहे ।
उड़ता सरी पतंग।