किताबें और मैं
/// जगत दर्शन साहित्य
किताबें,
कभी साथी थीं साथ रहने की आदी थी
अब सिमट गई है खुद में,
कहीं दूर किसी कोने में
अब नज़र जाती नहीं उनपर,
वो भी हमसे रूबरू नहीं होती
शायद खफ़ा है,..
कई दिन गुज़रे पर उनसे नहीं मिलें नहीं न…
कई दिन गुज़र गए, उनसे मिले हुए, खफ़ा है शायद
आज गये थे हम,
मिलने किताबों से
जहाँ फिर एक साल बाद मिलें हैं वो,
एक दूसरे से
बहुत दूर थे अभी हम, कहा इक अज़नबी ने मुझसे
हाँ, मेला लगा है, किताबों का…..
हम खुश हुए,
एक गम के साथ…,
कई दिन गुज़रे पर उनसे नहीं मिलें नहीं न…
खुश यूँ हुए खयालों में,
खयाल ही न रहा
हम पुछें उनका हाल,
कैसा सब चल रहा ..
देखा हमनें…
उत्साह था वहाँ, किताबों में,
लोगों में भी ख़ूब दिखा
आलिंगन किया अभिभूत होकर,
स्वागत हमारा किया
कई दिन गुज़रे गये थे इनसे मिले…..
बढ़ते गये हम भाव में,
समेटे इनको अपने साथ
कुछ दूर पहुँचें की,
मुलाक़ात हो गई
पुराने दोस्तों से,
जो मेरे थोडे़ परिचित से थे
मन भर आया, कहा धन्यवाद उन्हें,
कई दिन गुज़र गयें थे इनसे मिले…
यूँ ही बहुत आगे निकल आये,
देखा एक अद्भुत चमत्कार
किताबें थीं नहीं वहाँ,
कहा ई-बुक बेचते हैं हम
हमारे मुखारविंद अनायास ही बोल पड़े, धन्य हो प्रभु
इस मिलन बेला में,
क्यूँ यमराज को न्योता,
कई दिनों बाद थे इनसे मिले…
अब आ ही गये,
यमराज आप तो पूज लेते हैं आपको
अन्यथा नित्य कर्म की तरह,
हो गये हैं आजकल आप
दूर किये ताल्लुक़ात हमारी,
किताबों से आप
जो साक्ष्य रहे बचपन के मेरे,
साथी मेरे एकांत के,
कई दिन हो गये थे इनसे मिले…
अब न वो एकांत रहा,
न वो बचपन
व्याप्त हुए यमराज आप,
बन हम सब पे काल
कई रंग चढ़ गये,
मेरे सारे रंगों पर
और किताबों ने मुख मोड़ ही लिया,
जब हम पहुंचे उनके पास,
कई दिन हो गये थे इनसे मिले
पुनः कोने में थे वो पडे, लिए अपने एहसास
कितनी दूर आ गये हम इनसे,
यही कर रहा मुझे उदास
यही कर रहा मुझे उदास…..
कई दिन हो गये इनसे मिले…….
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