दे रहा तसल्लियाँ मुझे!
बहारों से हटके जरा पतझर की ओर रुख करें तो हम उसके भी शुक्रगुज़ार है।। इसका भी जवाब नहीं आकर जाते हुए बहारों का नजराना दिए जाता है। इक नयी नवेली इक आस जगा कर पुराने उम्र दराज़ हो चले पत्तों को दूर कहीं कर देता है। उसके इस मिज़ाज को ही हमने बँया किया है।:- किरण

✍️ कवियित्री: किरण बरेली
/// जगत दर्शन साहित्य
/// जगत दर्शन साहित्य
हाय यह क्या हुआ?
सबके सबके पत्ते मुझसे,
बिछुड़ते चले गए।
कुछ को पवन उड़ा ले गयी
दूर बहुत दूर अंजाने ठौर
बाकी बच रहे है कुछ
मेरी उजड़ी शाखों तले।
ये गिरे पात अब तलक
कुछ ऐसे ही रिश्ते
निभाए जा रहे हैं
जुदाई से किया
इन सबने तौबा
मुझसे लिपटे रह गए हैं आसपास।
इक-इक पत्ते रंगीन रंगों
को ओढ़ मुस्कुरा रहे हैं,
मेरे वजूद को बरकरार रखा है
उम्मीदों से तन हरियाला कर रहे हैं।
अक्सर शायरों ने बहारो पर
लिखा है गीत गज़ल
पतझर पर भी लिखने शायर
मसीहा की तरह मिल गया।।
ओ रहम दिल शायर
क्या करूँ तारीफ तुम्हारी
थाम लिया
कलम दो हाथों में
लिखने पतझर की दास्ताँ मेरी।
दे रहा तसल्लियाँ मुझे
कहता इक दिन आएंगी जरूर
बहारें झूम कर तुझ पर
डालियाँ कोई शोख गज़ल गुनगुनाएंगी।