आलीशान हवेलियाँ, मन में चली हैँ शीत हवाएँ!
✍️ सुखविंद्र सिंह मनसीरत, खेडी राओ वाली (कैथल)
/// जगत दर्शन न्यूज
********** आलीशान हवेलियाँ ************
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खंडहर बताते हैं आलीशान होगीं हवेलियाँ,
क्या हुआ कभी भी बुझती ही नहीं वो पहेलियाँ।
तीर तो अभी बाकी है चाहे नहीं दम रहा नहीं,
टूट कर हुए दरवाजे ख़ाक खाली दहेलियाँ।
रीत काल गुम सा तन मन से है हुआ कुछ न सके,
आज याद आती होंगी वो पुरानी सहेलियाँ।
यूँ हरे – भरे आंगन में भरती रही खूब झोलियाँ,
खूब जां लगाकर थी खुशियाँ बेतहाशा बिखेरियाँ।
रह गए यहाँ मनसीरत जैसे अकेले सड़े गले,
मिट गए निशां सारे हिस्से हैं बची ये निशानियाँ।
****** घूमते घुमंतू गाड़ी लुहार ******
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ना कोई ठौर ठिकाना ना ही घर -द्वार हैँ,
खुली हवा में घूमते घुमंतू गाड़ी लुहार हैँ।
हररोज बंजारे लोग बदलते रहते हैँ डेरा,
जोगियों सा उनका होता दर बदर फेरा,
खानाबदोशी जन जीवन सुंदर संसार है।
खुली हवा में घूमते घुमंतू गाड़ी लुहारहै।
सर्प सी बल खाती बंजारन चली आती,
नाक में नथनी कान में बाली बड़ी भाती,
खुदा ने बख्शा गोरा वर्ण रूप उपहार है।
खुली हवा में घूमते घुमंतू गाड़ी लुहार है।
घाघरा कुर्ती पहनकर बनाती औजार हैँ,
मर्दों सी बहादुरी ले हाथों में हथियार हैँ,
छैल छबीली छोरियाँ तीखे नैन कटार है।
खुली हवा में घूमते घुमंतू गाड़ी लुहार है।
लंबी सी मूँछे पहनते धोती कुर्ता हार है,
आन-बान से हैं सहते पगड़ी का भार है,
छैल छबीले छोरे कद काठी है अपार हैँ।
खुली हवा में घूमते घुमंतू गाड़ी लुहार हैँ।
मनसीरत बजती घंटियाँ बैल गलहार में,
गाड़ी लुहारे आ गए नदी के इस पार में,
ले लो जो लेना चले जाएंगे उस पार हैँ।
खुली हवा में घूमते घुमंतू गाड़ी लुहार हैँ।
ना कोई ठौर ठिकाना ना ही घर द्वार है।
खुली हवा में घूमते घुमंतू गाड़ी लुहार है।
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मन में चली हैँ शीत हवाएँ
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मन में चली हैँ शीत हवाएँ,
दिल से बुलाती आन सदाएँ।
जीना हुआ मुश्किल सा हमारा,
कातिल अदा मन नीर बहाए।
आँधी चली तन मार कटारी,
छाई गगन पर श्याम घटाएँ।
नभ की परी से जान बचाई,
दो चार दिल की बात बताएँ।
अद्भुत मिली सीता राम निशानी,
नगमें तराने गीत सिखाएँ।
जब से चली है प्रेम कहानी,
प्यासे दिलों में प्रीत बढ़ाए।
ये प्यार मनसीरत चाँद सितारे,
थल पर हमें आ खूब रिझाएँ।
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