मजदूरों का कैसा दिवस?
मजदूरों का कैसा दिवस?
रचना: किरण बरेली
सूरज की तपिश बर्दाश्त किए हैं,
हम पत्थर है मोम की मूरत नहीं।
है पाँव के नीचे धरातल काँच का,
झूठे भुलावो में आ जाना आदत नहीं।
होता है हक सभी का खुशियों पर,
लेकिन जिस पर हक हमारा ही नहीं।
स्वाभिमानी फरियाद करे कहाँ अंधे जँहा में,
रहम मांगने की फितरत हमारी नहीं।
मेहनतकश हाथों पर यकीं है हमें,
तकदीर की रेखाओं को मानते नहीं।।