रचना: पीके सूर्यवंशी 'कृष्णा' फर्रूखाबाद
फिर उसे नही देखा!
उसे जी भर के एक बार देखा
फिर उसे नही देखा।
आँखों मे रहा दिल मे उतर कर नही देखा
कश्ती के मुसाफिर ने समंदर नही देखा
बे-वक़्त अगर जाऊँगा सब चौंक पड़ेंगे
इक उम्र हुई दिन में कभी घर नहीं देखा
जिस दिन से चला हूँ मेरी मंज़िल पे नज़र है।
आँखों ने कभी मील का पत्थर नहीं देखा
ये फूल मुझे कोई विरासत में मिले हैं।
तुम ने मेरा काँटों भरा बिस्तर नहीं देखा
यारों की मोहब्बत का यक़ीं कर लिया मैं ने।
फूलों में छुपाया हुआ ख़ंजर नहीं देखा
महबूब का घर हो कि बुज़ुर्गों की ज़मीनें
जो छोड़ दिया फिर उसे मुड़ कर नहीं देखा।
ख़त ऐसा लिखा है कि नगीने से जड़े हैं
वो हाथ कि जिस ने कोई ज़ेवर नहीं देखा
पत्थर मुझे कहता है मेरा चाहने वाला
मैं मोम हूँ उस ने मुझे छू कर नहीं देखा।
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