वर्षों से गणतंत्र में कहीं लोकतंत्र सीमित होती जा रही है। हमारी आजादी भी अब सीमित होती जा रही है। क्या इसका कारण कहीं हमारा सिममटता हुआ गणतंत्र तो नहीं? आजादी पर चिंतित प्रस्तुत है हिंदी साहित्य की प्रख्यात कवियित्री किरण बरेली जी की यह सरल एवं सारगर्भित रचना।
आजादी को आजादी मिले:किरण बरेली
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नयी उमर की लहरों,
गुलाम तटों के बंधन तोड़ दो।
अंतस में उठती आँधी को
अब प्रलय बन जाने दो।।
तेज हवा बन, तूफानी वेग हो जाने दो,
बिजलियों की गर्जना कर दो।
तन पर ओढ़ी कायरता उतार फेंको,
देश के कर्मवीरों नवयुग का आरम्भ करो।
नयी आँच की मशाल हाथों में थाम
रात अंधियारी सही, निकल पड़ो।
गहरी नींद में सो चुकी है मानवता,
नयी क्रांति का शंखनाद कर दो।
जागरण का आह्वान कर दो,
कैद हो चुकी आजादी, आजाद कर दो।
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