★  जगत दर्शन साहित्य  ★
  फिर करोना--एक दर्द एक टिस  
   रति चौबे   
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फिर करोना--
  होने लगे 'अंधेरे ' अब 
   घनी रातों से गले मिले
     अब सहमें सबेरे --+
"अति"अब होने लगी 
  "दहशत"का हुआ 'नृतन
   सुख चैन हुआ नदारत 
    इंसान टूटने ही लगा है 
फिर 'मिलन'की मौत है 
घिरने लगे 'संशय-बादल'
 वही आंसू ,वहीं चीखें हैं
  वहीं क्रूर -क्रंदन है ----+
   हो गई वीरान देखो 
  महकती बगिया,घरों की
  चिंताओं को समर्पित--
  मांग का सिंदूर,लाल-
        लाल गोदी का--+
खो गई 'पहिचान'सबकी 
हम खुद में सिमट गए हैं
छुप गए हैं 'दायरों" में यूं
देखिए हम तो कट रहे है-
रातें डराने अब लगी हैं
दिन होने लगे 'मातमी'हैं
शहनाईयों के स्वर' थमे हैं
गीतों में  'रुदन-स्वर ' हैं--
जीवन-मूल्यों में 'कटौती'
'खौफ के घेरे' में "जीवन"
झंकारों में भी "चीत्कारें"
 गुम उजाले हो गए  अब
"दर्द" बढ़ने लगा है 
    "टीस" रिसने लगी है 
       "हूक" सिसकती है 
यह कैसी "विडम्बना"?
       कैसी विडम्बना?
           कैसी विडम्बना??
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रचना
 रति चौबे
   9766740311
