★ जगत दर्शन साहित्य ★
तू झील खामोशियों की : रति चौबे
'तू' झील खामोशियों की
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क्या कहा ?
"तू"झील खामोशियों की
"मैं" लफ़्ज़ों का लहर हूं -
सुनों -
"मैं" झील खामोशियों की
छुपा लिया है लफ्जों' को
अपनी शीत जलधारा में
तुमको छूकर लहरे आई
लफ़्ज़ों का सागर लहराये
"मैं" मीठी सी झील बनी -
मौसम हुआ यूं सुहावना
मेघों ने किया अभिनंदन
लफ़्ज़ों की मधुर लहर है
तन मन को वो डूबो रही
कहीं उमढ़ ना जावे झील
"लफ़्ज़ों"को बहा ले जाए
टूट जावे खामोशियां' मेरी
तो-
'लफ्जों' को बोलनै ही दे
अहसासों को बिखरा दे
भावनाएं कोउमढ़ने ही दे
लहरों को बल खाने ही दे
तब-
लफ़्ज़ों के हिरण कुलांचें
लेंगे -
हर लम्हों में "लफ्ज़"भरेंगे
नये लफ्ज़ कुछ यूं पनपेंगे
पलटेंगे जीवन के भी पन्नें
जीवन में कुछ रंग भरेंगे
लहरें तो आकुल ही होती
बेबस हैं लहरें लफ़्ज़ों की
उन्हें उछलकर बहनें दो
तोड़ के सब बंदिश जाने
दो -
लफ़्ज़ों में जब तूंफा होगा
तुम रोक उसे ना पावोगे
लफ़्ज़ों की दर्दीली 'छुवन'
खामोशियों को विचलित
कर देगी-
भर देगी एक मीठी छुवन'
गुनगुनाएगी, खामोशियां
और तुम -
समाधिस्थ से हो उसमें
खो जाओगे -
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रचना : रति चौबे