प्रेम यज्ञ की 'ज्वाला' में
तुम आहुति बन उतरे
हुई सुवासित पीड़ा मेरी
अंग अंग आंनन्दित
रोम रोम में बस गया' तू'
' आहुति ' सा पावन
ज्वाला तो भड़की और
प्रिय फिर -
जब जब उतरे तुम
'आहुति'बन
प्रेमयज्ञ की ज्वाला में
तुम-
लिपट गई आहुतियां
भी
मेरे अंग प्रत्यंगो से
धीरे-धीरे
शांत हो गई जब
बढ़ती हुई वें ज्वालाएं
बच गई 'बस'
सुगंधित भस्म
प्रेमयज्ञ के कुंड में
पड़ी हुई थीं
तेरी-मेरी
भस्मदेह
भावविभोर
निर्लिप्त सी
हो ---
एकरस
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रचना
रति चौबे
नागपुर महाराष्ट्र