◆ जगत दर्शन साहित्य ◆
● काव्य जगत ●
जलती - बुझती रोशनी
प्रिया पांडेय रौशनी
हवा के झोको से जलती - बुझती रही रोशनी,
बारिश की बूंदों में रोती रही रोशनी,
सांसों की उलटी गिनती गिन रही थीं रोशनी,
रातों के अंधेरों में तारो को निहारती रही रोशनी,
अपने हर जज्बातों को अंदर ही अंदर दबाती रही रोशनी,
खुद जल कर दूसरो को प्रकाश देती रही रोशनी,
हर किसी को प्रेम की बाते बताती रही रोशनी,
खुद लोगो की नफरतों से नवाजी गयी रोशनी,
हर किसी की उलझनों को सुलझाती रही रोशनी,
खुद अपने ही लोगों से उलझती रही रोशनी,
सारे जहा के अंधेरे को मिटाती रही रोशनी,
खुद अंधेरे में सिसकती रही रोशनी,
खुद बुरा बन ने के लिए उसे बुरा बताती रही रोशनी,
खुद अपने ही आंसुओ की बूंदों से बुझती गयी रोशनी।
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प्रिया पाण्डेय "रोशनी"
सम्पादिका
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