★ जगत दर्शन साहित्य ★
◆ काव्य दर्पण ◆
यह नहीं मैं सोच पाई : रति चौबे
●●●●●●●
हो जाऊंगी दूर तुमसे
दूरियां इतनी बढ़ेगी -
यह नहीं 'मैं' सोच पाई
साथ तेरे' मै' जितनी चली
मन से अपने 'मै' ही चली
सोचा नहीं दिल ने कभी
दूरियां इतनी होगी कभी
'मैं' बिकूं बेकार ही -
इतनी सस्ती 'हस्ती'नहीं
'जो' जलाए 'देह'ही मेरी
'धूप ' वो 'मुझे'भाती नहीं
क्योंकि-
जल की सतह पर कभी
नाम 'मैं' लिखती ना कभी
टूटकर बिखरेंगे हम कभी
यह ना सोचा था - कभी
साथ तेरे दिन रात जली
मन से मैं सदा ही जली
अब तो जाकर जान पाई
कब से यूंही मै बहती गई
जिसको जानी 'मैनें'
अपनी ही छाया
'वो' कभी ना थी
मेरी कभी छाया
हाथ में 'हिमखंड' होगें
यह नहीं 'मैं' जान पाई
साथ जितनी' मै' गली हूं
मन से तेरे साथ गली हूं-
रति चौबे