★ जगत दर्शन साहित्य ★
◆काव्य जगत◆
क्षणिक दुःख सुख:आलोक रंजन
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दुःख कहें या सुख
जिन्दगी का एक सिलसिला है,
कहीं टपकता बूंद है,
तो कहीं कहीं सुखा गिला है।
अगर दुख न होता
तो सुख को कहां से लाते हम,
सब सुखी ही रहते
तो भला देवालय क्यों जाते हम।
कुछ उधार नहीं मिलता
यहां सबकुछ चुकाना है,
सबकुछ लुटेगा बाजार में
जो भी दिखा खजाना है।
आज एक आदमी जब
नेक राह पर भी चलता है,
उसके जेहन में आगे पीछे के
अनेक बात पलता है।
कोई नहीं आया यहां
यहीं बनकर उठना सबको है,
हंस लें दुःख में भी हम
बाकी ज्ञान तो रब को ही है।
यहां अब सब छुपा कर
रखते हैं अपने अपने को,
कोई जान न ले जान के
दुःख सुख और सपने को।
बच्चे हंसते हैं और
बहुत खुब हंसते हैं हम-सब पर,
कुछ तो यथार्थ दिखाओ
ना अब दिखाना कम कर।
हंस लिया करो सह लिया करो
कुछ दिन के आहें,
मिलेगी मंजिलें भी
बता रही हैं कुछ बदलती राहें।
ढका तो सही तन नहीं
मन को छुपाया है आदमी,
दुःख घर पर छोड़कर
आज बाहर आया है आदमी।
जहां कुछ नहीं देखा
वहां भी सब साफ़ देखा है,
दुःख तो सही है सुख देता है
मैंने इंसाफ देखा है।
दुःख एक बच्चे को भी है
सुबह स्कूल जाने का,
आज वही बच्चा दुखी है
उसे ही भुल जाने का।
सबके एक नहीं होते दुःख
कई रंग होते हैं उसके,
अमीर गरीब ऊंच नहीं
सब के सब है आज बंट के।
एक प्यासे की खुशी
एक ही बूंद सही पानी होगी,
लेखक क्या लिखें
अपनी खुशी यह कहानी होगी।
लड़खड़ाते बहुत हैं राहगीर
डगर में बहुत चलकर,
पत्थर है तो हटाओ ना
समस्या ही है तो हल कर।
हमने देखा है
दुःख के बाद ही सुख को आनी है,
ज़िन्दगी दुःख सुख से ही तो
बनी एक कहानी है।
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-आलोक रंजन
कैमूर (बिहार)