यादों की गठरी
यादों की गठरी से निकलें हैं
कुछ अनमोल से पल,
जो कभी हमारे हुआ करते थें
अब बची हैं कुछ यादें
सिसकती हुई उनमें
जो कभी खिलखिला कर
हँस दिया करती थीं
तुम्हारे आगोश में आकर ।
तुम क्या जानों ?
सपनों का टूटना
जिसनें कभी मुड़कर,
नहीं देखी यार की गलियाँ
चाहत का दम भरना
और किसी की चाहत में डुब जाना
दोनों कितना पृथक है ।
काश, कि तुम समझ पाते
यादों की गठरी से निकलें हुए
उस क्षण का निरर्थक हो जाना,
जिसनें कभी साथर्कता को
पूर्णता से जिया हो ।
काश, कि तुम समझ पाते
बहार के बाद पतझड़ का आना
और 'प्रीत' के वे सारे पल
जो संग जीना अब मुमकिन ना होगा ।
ठीक वैसे ही जैसे,
खिलती हुई कलियों पर
मंडराता हुआ भँवरा
कुछ पल के बाद खुद को
आजाद कर लेता है
और कलियों के हिस्से
इन्तजार की घड़ियाँ
सौंप जाता है
जन्म-जन्मान्तर के लिए........
प्रीति मधुलिका
पटना बिहार