बिछ रही राहों में बेकफन लाशें
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हम सरल सहज मन
भूल कर बरगद की छाँव
तंग सी गलियों को
मान बैठे अपना गाँव।।
हम मेहनतकश मजदूर
बेबस बदहाल बुनते रहे
सभी का आशियाना
लगन के साथ गढ़ते रहे।।
परिवार परिजनो से दूर
बसेरा किया अंजानी डगर पे
श्रम का खारा जल बहाया
गली गली नगर नगर में।।
तपिश उगलता बैरी सूरज
पिधलती धरा शिकवा न किया
जला जला के तन मन
कुंदन सा हमने ही किया।।
बेज़ुबानो का लंबा काफिला
नंगे पाँव सफर कर रहा
अनगिनत बेकफन लाशें बिछी
रास्ता चौराहे श्मशान हो रहा।।
अपनी ज़मी नहीं दफन के लिए
रुदन है सिसकियां सिसक रही
घर पहुंचने की चा हतें
आधी राह में दम तोड़ रही।।
किसे सुनाए गमों के किस्से
सबके दिल गूँगे बहरे हैं
ये पत्थर दिल लोग सभी
मोम सा होने का दावा करे हैं।।
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किरण बरेली