दशहरा एक कहानी
/// जगत दर्शन न्यूज
एक था राजा अत्याचारी
उसकी कुदृष्टि में थी पर नारी
राम जी की सेना ने उसे धूल चटा दी
पूरी सोने की लंका उड़ा दी।
सुनाती थी मुझे यह कहानी
मेरी दादी-नानी।
दादी को दादी की दादी
नानी को नानी की नानी।
सदियां बीत गई
बुराई पर अच्छाई जीत गई।
खुशी में हर साल मनाते
दुर्गा अष्टमी, विजयदशमी दशहरा।
तीनों पुतलों को जला कर करते खाक
बुराई के प्रतीक हुए राख
जलते पुतलों में से निकलते
काले धुएँ के गुब्बारें
आभास कराते
बुराई छोड़ रही है धरती माँ के द्वारें।
आसमाँ की और जा रहीं है
शीतलता छा रहीं है
अच्छाई जमीं पर आ रही है।
पर हर साल यहीं पुतलें जलते हैं
दुर्गा अष्टमी और दशहरा मनते हैं ।
न खत्म हुए बलात्कारी
न खत्म हुए अत्याचारी
आज भी बेबस हैं नारी।
दादी-नानी ने फिर से किस्सा सजाया
क्या करें घोर कलयुग हैं छाया--?
रावण तो सिर्फ नाम था
आज तक क्यों बदनाम था
ज्ञानी, ध्यानी, ज्ञानवान था
ब्राह्मज्ञानी, वेदों का ज्ञाता
अहंकारी, पर शिव साधक
शिव भक्ति में रमा महान था।
अपहरण की उसने नारी
पर नहीं था बलात्कारी
सेवा में उसके सत्कार था
सहमति का उसे इंतजार था।
आज रावण नहीं कोई नाम है
बस उजले जामे में लिपटा काला इंसान हैं
बईमान और शैतान हैं
बीच चौराहे में बेचता ईमान हैं।
मुँह में राम-राम हैं
काम वासना का गुलाम हैं
जहाँ देखता बेबसी और लाचारी
सरेआम बनता व्याभिचारी और बलात्कारी।
नारी माँ दुर्गा का अवतार
विजय दशमी का सत्कार चाहती हैं
पवित्र पर्व का मान चाहती हैं
कानून में बदलाव का प्रावधान चाहती हैं ।
क्यों न हर साल विजय दशमी पर
बलात्कार की मारी
बेबस और लाचार नारी
के हाथों में अग्नि की मशाल थमा दी जाए
इन रावणों को,
उसके कदमों में झुका दिया जाए
इन्हें जिंदा ही जला दिया जाए
सही मायने में बुराई पर अच्छाई का प्रतीक
विजय दशमी का मजा लिया जाए।

