सेवा और परोपकार का मार्ग: “तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा”
भारतीय संत परंपरा जैसे संत तुकाराम, संत रविदास, महात्मा गांधी आदि ने सिखाया कि सेवा ही सच्चा धर्म है।
गांधीजी कहते थे: "यह पृथ्वी हर व्यक्ति की आवश्यकता को पूरा कर सकती है, लेकिन किसी एक के लालच को नहीं।"
"नर सेवा ही नारायण सेवा है" का सिद्धांत हमें सिखाता है कि भूख से तड़प रहे व्यक्ति को भोजन कराना भी ईश्वर की पूजा समान है।
ईशावास्य उपनिषद के पहले श्लोक में भी यही संदेश मिलता है:
ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्। तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम्॥
अर्थात् संसार की हर वस्तु, जड़ हो या चेतन, उसमें ईश्वरीय सत्ता विद्यमान है। मनुष्य को यह समझना चाहिए कि किसी भी वस्तु पर उसका अपना स्वामित्व नहीं । इसलिए, जो कुछ भी हमें मिलता है, उसका यह सोचकर उपभोग करना चाहिए कि यह सब ईश्वर का दिया हुआ प्रसाद है और हमें इसका उपभोग त्याग की भावना से करना चाहिए न कि लालच से अन्य की सम्पत्ति का अधिक संग्रह करना।
जीवन में इसके कुछ सिद्धांत बनाने आवश्यक हैं जैसे कि आवश्यक्ता से अधिक किसी भी वस्तु का उपभोग न करना हमें त्याग से जोड़ता है। वास्तव में अपने सामर्थ्य से अधिक सेवा, परोपकार व दान-भाव रखने वाला ही अध्यात्म के दृष्टिकोण से अन्य की अपेक्षा अधिक सम्पन्न व्यक्ति है।
डॉ कंचन मखीजा
रोहतक हरियाणा