भारतीय दर्शन में आध्यात्मिक और नैतिक दृष्टिकोण!
✍️डॉ कंचन मखीजा
भारतीय दर्शन में शास्त्र, वेद, उपनिषद और भगवद्गीता और सनातन संस्कृति, सभी आत्मा के स्वरूप का गहन विवेचन करते हैं।
‘आत्मा’ शब्द संस्कृत धातु ‘अत्’ से निकला है, जिसका अर्थ है - गति करना, चलायमान होना। आत्मा को शरीर की ऊर्जा नहीं बल्कि एक स्वतंत्र और शुद्ध सत्ता माना गया है।
आत्मा का तात्त्विक स्वरूप के बारे में भगवद्गीता के एक श्लोक में श्रीकृष्ण कहते हैं – “न जायते म्रियते वा कदाचि- न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे॥”
अर्थात् आत्मा का न जन्म होता है, न मृत्यु। यह नित्य, शाश्वत, अजर और अविनाशी है। जब शरीर का अंत होता है, तब भी आत्मा नष्ट नहीं होती।
वह अजर- जो कभी वृद्ध नहीं होती न ही इसका कोई भौतिक शरीर नहीं होता है, उस पर समय का प्रभाव नहीं पड़ता, आत्मा शाश्वत रहती है।
अमर -जो कभी मरती नहीं, शरीर एक नश्वर वस्तु है। इसका जन्म होता है, वृद्धि होती है और फिर इसका अंत होता है।आत्मा इन सबसे परे है। यह अग्नि से जलती नहीं, जल से भीगती नहीं, वायु से सूखती नहीं। अस्त्र-शस्त्र से कटती नहीं।
गीता का अन्य श्लोक यह स्पष्ट करता है कि जैसे मनुष्य पुराने कपड़े उतार कर नए कपड़े पहनता है, वैसे ही आत्मा पुराने शरीर को छोड़कर नया शरीर धारण करती है।
“वासांसि जीर्णानि यथा विहाय, नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि। तथा शरीराणि विहाय जीर्णा
न्यन्यानि संयाति नवानि देही॥”
अविनाशी -जिसका विनाश संभव नहीं। ‘विनाश’ का संबंध उन वस्तुओं से होता है जो समय और परिस्थितियों के अधीन होती हैं। आत्मा किसी भौतिक नियम के अधीन नहीं है। यही बात आत्मा पर भी लागू होती है।
“आत्मा अजर अमर अविनाशी है” – यह कथन केवल एक धार्मिक विचार नहीं, बल्कि जीवन का वैज्ञानिक और दार्शनिक सत्य भी है। जो जीवन की वास्तविकता को समझने का मार्ग भी प्रशस्त करता है। जब हम इसे अजर, अमर और अविनाशी के अर्थ में समझते हैं, तब जीवन की कठिनाइयों में हमारा दृष्टिकोण बदलता है और इस समझ से अहंकार, लोभ, भय और मोह से ऊपर उठ कर सहज ही शांति का अनुभव कर पाते है। हम जान पाते हैं कि यह संसार एक नाटक है, जिसमें हम केवल एक पात्र हैं।मृत्यु वास्तव में आत्मा का शरीर से अलग होना मात्र है, न कि अस्तित्व का अंत।जैसे दीपक में तेल और बाती होने पर ही प्रकाश होता है, वैसे ही आत्मा/प्राणिक उर्जा के बिना शरीर एक निष्क्रिय वस्तु बन जाता है। विज्ञान भी कहता है कि ऊर्जा को नष्ट नहीं किया जा सकता, केवल उसका रूप बदला जा सकता है।
इस आध्यात्मिकता को समझने से न केवल व्यक्ति जीवन में उन्नति करता है, बल्कि मृत्यु के भय से भी मुक्त हो जाता है। यह नित्यता की अनुभूति व्यक्ति को जीवन में संतुलन, संयम, समर्पण, स्थिरता और शांति के साथ संतुलन प्रदान करती है। यही सनातन सत्य है, और यही आत्मज्ञान की पराकाष्ठा भी।