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वासंती एक शाम
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✍️ डाॅ कविता परिहार
/// जगत दर्शन साहित्य
पोर पोर, सांस सांस
उतर गई, आज शाम
वासंती एक शाम ।
चढ़ी धूप, उतर गई
सीढी के ,ताल के
दियने कुछ, थिरक उठे
लहरों की, चाल पे
मंदिर के, कलशो से
उतर गई ,आज शाम
वासंती एक शाम ।
बिंदी एक ,लुढ़क गई
पश्चिम के, भाल से
तारे कुछ, उभर रहे
संध्या के, गाल पे
केश गुथे, जूडे पर
जुही -जुड़ी आज शाम
वासंती एक शाम।
धूल उठी, गैलो से
शाखों से, उलझ गई
दिनभर की,अकुलाहट
पातो की ,सुलझ गई
अमुआ के, बारौ से लिपट गई ,
आज शाम, वासंती एक शाम ।
आंगन के तुलसी के
बिरवे के नीचे
जुड़े हाथ, झुका माथ
दो अखियाँ मीचे
सधवा के ,वंदन में
सिमट गई , आज शाम
वासंती एक शाम।