पत्थर की मूर्ति को कीमती हीरे-जवाहरातों से सजाना उचित या अनुचित?
नागपुर (महाराष्ट्र): नागपुर की प्रतिष्ठित संस्था हिन्दी महिला समिति के तत्वावधान में एक बेहद संवेदनशील विषय पर परिचर्चा का आयोजन किया गया जिसका विषय था- पत्थर की मूर्ति को कीमती हीरे-जवाहरातों से सजाना, उचित या अनुचित? कार्यक्रम की अध्यक्षता स्वयं समिति की अध्यक्षा श्रीमती रति चौबे जी ने किया। सचिव रश्मि मिश्रा के संयोजन व संचालन में कार्यक्रम सफलतापूर्वक संपन्न हुआ।
उपर्युक्त परिचर्चा में सखियों ने अपने निम्नवत् विचार रखे।
गीतू शर्मा जी कहती हैं कि पत्थर की हो, मिट्टी की हो, लकड़ी की या किसी और धातु की, मूर्तियों को आडंबरवश बाह्य तौर पर हीरे, मोती, जवाहरातों से सजाना अनुचित है। मूर्तियों का असल सौंदर्य तो स्वयं उनमें ही होता है या फिर शिल्पकार की कारीगरी, उन मूर्तियों पर भारी भरकम हीरे मोती लादकर उनकी असल खूबसूरती को छुपा दिया जाता है जो की सही नही लगता ।
निशा चतुर्वेदी जी के अनुसार एक कहावत है कि मानो तो देव नहीं तो पत्थर। यह हमारे सोचने और समझने और दृष्टि का भेद है।काम करती है हमारी भावना और मूर्ति के प्रति हमारी श्रद्धा कितनी है और हम उसमें किस रूप के दर्शन कर रहे हैं। जब हम ईश्वर रूप में पूजन करते हैं तब उन्हें सर्वस्व समर्पित करते हैं। उन्हें सजाते हैं स्नान कराते हैं, सुन्दर वस्त्र पहनाते हैं धूप दीप नैवेद्य गंध सभी कुछ समर्पित करते हैं। यहां उचित अनुचित का कोई प्रश्न ही नहीं उठता है। जिनके पास हीरे मोती उपलब्ध नहीं हैं वह फूलों से और अपने हाथ की बनी पोशाकें पहना कर खुश हो जाते हैं। यहां मुख्य बात हमारी भावना से संबध रखती है।
अमिता शाह* जी कहती हैं कि पत्थर की मूर्ति को वस्त्राभूषणों से सजाकर रखने से मूर्ति जीवंत लगती है। हम मनुष्य हैं तो हमारी तरह ही उनका भी श्रृंगार करते हैं। हमें जो व्यंजन पसंद है उसका पहले अपने आराध्य को भोग लगा कर ही प्रसाद लेते हैं।अगर हम कीमती वस्त्राभूषण पहनते हैं तो ये अवश्य चाहते हैं कि हमारे ईश्वर भी वह धारण करें। ये भक्ति का भाव है। इसमें उचित-अनुचित का प्रश्न नहीं आना चाहिए।
गार्गी जी के मंतव्य में मनुष्य आदिकाल से ही सौन्दर्य का उपासक रहा है। प्राचीन खुदाई में जो भी अवशेष मिले हैं ,उनमें सौन्दर्य वर्धन के लिए आभूषणों का प्रयोग दृष्टिगोचर होता है ,फिर चाहे वो आभूषण पत्थर ,हड्डी ,लकड़ी या सीप और कौड़ियों से ही क्यों न बने हों । जहाँ इन वस्तुओं का प्रयोग नहीं किया गया वहाँ प्रस्तर या मिट्टी की प्रतिमाओं पर ही आभूषण उकेरे गए हैं तात्पर्य ये है कि मनुष्य की श्रृंगार प्रियता स्वयं के साथ ही उसके द्वारा निर्मित प्रस्तर प्रतिमाओं में भी देखी जा सकती है । समय के साथ जब विभिन्न धातुओं ,और बहुमूल्य रत्नों का प्रयोग आरंभ हुआ तो मनुष्य के साथ प्रतिमाएं भी बहुमूल्य आभूषणों से सुसज्जित होने लगी हैं ,विशेषकर देव प्रतिमाएं अपने सुंदर आभूषणों से बरबस ही आकर्षित करती हैं । यह तो सत्य है कि सौंदर्य का वास श्रृंगार में ही होता है ,जबकि नग्नता वीभत्स होती है इसलिए प्रस्तर प्रतिमाओं को भी सुंदर वस्र पहनाए जाते हैं और जब उन्हें आभूषणों से मंडित किया जाता है तो वे अत्यंत लुभावनी प्रतीत होती हैं ।
ममता जी कहती हैं कि णसादगी में ही सुंदरता निहित है। ऐसा लोग मानकर चलते हैं और जहां तक ईश्वर की बात है,वो तो हमारे प्रेम,श्रद्धा,भक्ति भावना के प्रतीक है। उन्हें तो प्यार और भक्ति भावना से 2फूल भी हम समर्पित कर दे तो प्रभु कल्याण करते है। परंतु सिक्के के 2 पहलू की तरह इसका की एक दूसरापहलु है।कई बार भक्त भावना वश प्रभु को सोने का मुकुट,माला,मंदिर में स्वर्ण कलश,घंटा आदि चढ़ाते हैं।और प्रभु को समर्पित इन चीजों का उपयोग होता है। बाला जी का मंदिर इसका एक अच्छा उदाहरण है।वहां पर चढ़ावे में प्रभु को शंख,चक्र, मुकुट के अलावा सोने चांदी की बहुत सी वस्तु भेंट में मिलती है।सो प्रभु को इन्हें समर्पित करना पड़ता है ताकि भक्त की भावना आहत न होने पाए।
निवेदिता पाटनी जी के कथनानुसार जब हम किसी मंदिर में मूर्ति की स्थापना करते हैं,तब उसमें प्राण प्रतिष्ठा करवाते हैं।बस उसी दिन से हमारे प्रिय ,ईष्ट, आराध्य देवी देवता को हम मूर्ति न मान, साक्षात मानकर हम उनकी यथाशक्ति, यथा सम्भव सेवा,पूजा में हाजिरी देने लगते हैं। षोडशोपचार विधि से मूर्ति की पूजा करने के पश्चात आठों पहर उनकी सेवा मंदिरों में सेवादार, पुजारी द्वारा की जाती है, प्रात:काल में प्रभु को दुध, पंचामृत से स्नान कराने के पश्चात, सुंदर - सुंदर नवीन-नवीन वस्त्र या स्वच्छ वस्त्र पहनाये जाते हैं, सोलह श्रंगार किया जाता है,जिसमें श्रंगार के साथ-साथ आभूषण शिषमुकुट, बैंदा, बिंदिया कानों में कर्णफूल नथनी, ठोड़ी पर हीरा नगींना ,हाथों में कंगंन, चूड़ी ,अंगूठी, कमर पर करधन, गुच्छे, पैरों पर पायल,घुंघरू, बिछिये पहनाये जाते हैं। ये सारे गहने मुर्ति की सुंदरता में चार चांद लगा देते हैं,मूर्ति भव्य और दिव्य दिखने लगती है ।
अध्यक्षा रति चौबे जी के अनुसार यह एक दिलचस्प प्रश्न है! पत्थर की मूर्ति को हीरे जैसे बहुमूल्य आभूषण पहनाना अनुचित हो सकता है। यहाँ कुछ कारण हैं:मूल्य की असंगति, सौंदर्य की कमी, अर्थ की कमी। इस प्रकार, पत्थर की मूर्ति को हीरे जैसे बहुमूल्य आभूषण पहनाना अनुचित हो सकता है। ईश्वर भावना के भूखे होते है लाखो करोड़ो के मूल्यवान आभूषण मूर्ति को पहनाने से वे अभिभूत नही होगे यदि मन में भावना व त्याग ना हो। मीरा को कृष्ण ने आत्मसात किया क्यूं? भावना.ही तो थी उसकी
आज कल ये आभूषण चढ़ावे के कहां जाते हैं ? एक सोच व विचारणीय प्रश्न है ? सुदामा को बिन मांगे सब दे दिया कृष्ण ने। आज भावना कम दिखावा ज्यादा है।
अपराजिता जी के अनुसार "जैसी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी" प्रभु नियत और भक्त की भावना देखते है ना की हैसियत बड़े-बडे मंदिरों के ट्रस्ट होते है साथ ही दान-दक्षिणा भी बहुत मिलती है। धनवान लोगों के मन में श्रद्धा-भक्ति कितनी रहती है यह तो भगवान ही जाने पर दिखावा और पैसे का घमंड होता है वो भगवान को हीरें-मोतीऔर सोने चांदी से सजा कर भाव भक्ति का इज़हार करतो हैं।
मंजू पंत जी बताती हैं कि मानो तो मैं गंगा मां हूं, ना मानो तो बहता पानी ठीक उसी प्रकार मानो तो देवता ना मानो तो पत्थर, जिनकी हम सुबह शाम पूजा करते हैं दूर दूर इन्हीं मूर्तियां से मन्नतें मांगते हैं,जो पूर्ण होने पर पुनः वहां जाते हैं, प्रसाद चढ़ाते हैं, अपनी कल्पनानुसार कि रावण का वध किया, यशोदा ने दूध पिलाया, सृष्टिकर्ता, पालनकर्ता, शेरावाली आदि नामों से पूजते हैं।।तो क्या वो साज सिंगार नहीं करके कल्पना करते हैं। क्या जो हमें देता है,उन्है हम अपनी आय के दशांश से हीरे -जवाहरात नहीं पहना सकते हैं। मेरे अनुसार तो पहनाना उचित है।
उपाध्यक्षा रेखा पाण्डेय जी ने बताया कि मंदिरों में मुर्ति की स्थापना के बाद और उसके बाद प्राण प्रतिष्ठा होने के बाद उस मंदिर में पूजा पाठ शुरू हो जाती है । इसके बाद मुझे लगता है कि यदि मुर्ति को हीरे जवाहरात से सुशोभित किया जाता है तो यह आवश्यक नहीं है । हम बिना हीरे जवाहरात के भी मंदिरों की मुर्ति की पूजा आरती कर सकते हैं ।
रेखा पांडेय जी ने आभार मानते हुए कार्यक्रम का समापन किया। काफी संख्या में साहित्य प्रेमी विदुषियां उपस्थित रहीं।