एक वृद्ध बुर्जुग की व्यथा
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' मैं ' बुर्जुग हूं
हां,,,,,हूं न बुर्जुग
पर
क्यों जता रहे मुझे
अहसास है
क्या बीती तारीख हूं
गुज़रा ज़माना हूं ?
भावशून्य हूं ?
एक दर्शनीय वस्तु हूं ?
पूजनीय हूं
पर कहां ?
केवल भाषणों में
सभाओं में
मंचों पे
पुरस्कार प्राप्ति हेतु ?
मैं केवल 'डस्टबिन'हूं
सिर्फ दिखावा
जहां 'है सम्मान'
वहां बसते भगवान
छोड़ो
बस मुझे जीने दो
मन से
तन से
खेलो ना अब
' खिलौना' नहीं
इंसा हूं
अभी 'स्वांस'है
मुझमें
धड़कने है
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