न जाने क्यों 'तुम बिन' कमी है मेरे मकान मे!
✍️मनजीत सिंह, मुख्यध्यापक, कलायत,कैंथल
माना कि प्रतिबिंब हूं आपका, इस जहान में,
फिर भी न जाने क्यों 'तुम बिन' कमी है मेरे मकान मे।
वो बाहों में लेकर, मुझे ऊपर उठाना
कंधो पर बिठाकर, मेला दिखाना
पेट पर अपने, मुझको लिटाना घोड़ा बनकर पीठ पर धुमाना
डैडी तुम आज भी साथ हो मेरे बचपन के जहान में,
फिर भी न जाने क्यों 'तुम बिन' कमी है मेरे मकान में।
वो उंगली पकड़ के, स्कूल ले जाना
पढ़ा लिखा कर ,एक इंसान बनाना
समाज के तौर तरीके मुझको, सीखाना
व्यवहारिक ज्ञान में निपुण बनाना
डैडी तुम आज भी साथ हो मेरे आचरण और सम्मान में,
फिर भी न जाने क्यों 'तुम बिन' कमी है मेरे मकान में।
वो पिता का अपना, फर्ज निभाना
घोड़ी पर बिठा कर, मुझे दूल्हा बनाना
बुलंदियों को छूने की राह दिखाना
रास नहीं आया तुम्हारा अचानक चले जाना
डैडी तुम आज भी साथ हो मेरे रक्त , श्वास और विचार में,
फिर भी न जाने क्यों 'तुम बिन' कमी है मेरे मकान में।
सोचता हूं बैठ के अकेला इस मकान में,
जब साथ हो तुम मेरे तो क्या खोया मैंने जहांन मे
दिल के किसी कोने से फिर आवाज आई
अरे तरूण , जिनको देखता था आते जाते बैठे यहां
अब उनकी छवि धरा से दीवार पर आई।
हौसला रख यह विधि का विधान है "मनजीत"
जो आत्मा इस धरा पर आई
उसकी निश्चित ही है एक दिन विदाई।
डैडी तुम आज भी साथ हो मेरे अपनों और मां के आशीर्वाद में,
फिर भी न जाने क्यों 'तुम बिन' कमी है मेरे मकान में।
माना की प्रतिबिंब हूं आपका इस जहांन में,
फिर भी न जाने क्यों तुम बिन कमी है मेरे मकान में।
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