★ जगत दर्शन साहित्य ★
◆ काव्य जगत ◆
बस कह कर तो जाते
रति चौबे
द्वार पे मेरी नज़र गढ़ी है
कब आजाओ पता नहीहै
नयन तटों से -
उमढा़ सागर
आंसू बनकर ढुलक
रहा है।
जीवन पुस्तक के
" किरदार" थे तुम
बिखर गए हैं
पुस्तक के पन्ने --
छटपटाहट सी रहती हर- पल
कहां से ढूंढ निकालूं - तुमको
धरा एक है,आकाश एक
हम-तुम बटें क्यों टुकड़े में -
दर्द एक था ,प्रीत एक थी
फिर क्यूं तुम गए अकेले ?
जीवन चहकता था तुमसे
सदा सुवासित रही तुमसे
मधुसिक्त रही-
हरपल तुमसे
मुझसे ही हो गए विमुख।
तुम "बरगद" से
बलिष्ठ तना थे
उर्जित रही सदा ही तुमसे
मेरे जीवन के -
"सूत्रधार"थे -
गठबंधन तोड़ तुम भागे?
देकर "उम्रकैद"
तुम यूं मुझको -
जीवन को कर "सीलबंद"
ओ मेरे निष्ठूर "न्यायधीश'
चले गए हो कहां
किस लोक में तुम
बिंदिया में था "प्रतिबिंब "
तेरा -
सदा रही इस भाल पे मेरे
बिछिंया ही संबल थे मेरे
ढूंढ तो कैसे ?
हुए कहां "लापता"
कुछ तो
दे जाते "सुराग" प्रिय'
कहां करूं-
"अपील"बता दो
" अपहरणकर्ता" से,
छीन तुम्हें ले आऊं
बस ---एक
शिकायत
सदा रहेगी
मुझसे "तुम"
कहकर तो जाते ???
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