कुछ ऐसा भी : किरण बरेली
मन के वीराने में,
कुछ लिखना बाकी है।
पारिजात के फूलों की
भीनी भीनी महक,
लेकिन नागफनी के घने
जंगलों में,
जज़्बात लहूलुहान हुए जाते हैं।
मन की उमंगो में
कुछ यूँ लिखना बाकी है,
नीम की लचकती
शाखों पर झूलता सावन हो
लेकिन दूर तक रेत का
नगर ही नगर
चमकता पानी का भ्रम
मन को भरमाए जाता है।
खिली धूप सी खिलखिलाती मुस्कान में,
शोख़ ग़ज़ल गीत कविता
लिखना अभी बाकी है,
लेकिन यथार्थ के क्षणों में
नमकीन चंद बूँदों के साथ
हमारे जज़्बात धुल कर
बह जाते हैं।
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