★ क़िस्मत ★
क़िस्मत होती अपनी अपनी
कोई बच्चा मस्त आलम में जीता है,
कोई अपना बचपन बेच कर
अपनी भूख मिटता है।
क़िस्मत की मार वो सहते है,
निकल जाते है सड़को पर,
कभी बाजार तो कभी चौराहे पर।
पेट के वास्ते दर दर वो भटकते है।
कई ए-सी की हवा में सोते है,
कई पसीने से अपने कपड़े भिगोते है,
कई के सारे ऐसो आराम पूरे हो जाते है,
कई दो जून रोटी को तरसते है।
भूख का दर्द हर दर्द से बढ़ कर है साहब,
पेट न हो तो शायद कोई तकलीफ़ ना होती,
किसी को छप्पन भोग का स्वाद मिल जाता है,
तो कोई किसी के जूठन को तरसता है।
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■ रीना शर्मा
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