हर रोज मेंरी तस्वीर बदलती रही,
मैं बेचैन होकर रात भर लिखती रही,
छू रहे थे सब आसमान को,
मैं तारों के बीच चाँद की तरह छिपती रही,
कोई राह नज़र नहीं आ रही,
अकेले पड़ गई हूँ मैं भीड़ में,
अपने ही पराये जब बन जाये,
जब रिश्तो की तस्वीर बदल जाये,
शांति का राह नज़र ना आये,
ख़ुद अपना सहारा बनना तुम,
ख़ुद काफी हो ख़ुद से कहना तुम, रूठती हैं ख़ुशी हमसे न जाने कैसे?
दुःख तो बेशुमार हैं,
शोक में हैं कविताये और मैं दोनों ही,
इस बदलती तस्वीर से,
शीशा होती तो कब की टूट गई होती,
मैं थी नाजुक पौधे की डाली जो सबके आगे झुकती रही,
बदले लोगों ने रंग अपने -अपने ढंग से,
रंग मेरा भी चारों तरफ़ फैला,
पर मैं हर रोज मेहंदी की तरह पिसती रही!
जिनको जल्दी थी वों चल दिये पा लिया अपनी मंजिल को,
और मैं हर रोज अपनी बदलती तस्वीर को पन्नों में उतरती रही।
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प्रिया पाण्डेय "रोशनी "
हूग़ली, पश्चिम बंगाल
संपादिका साहित्य